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आज हमारी दुनिया और देश की स्थिति जितनी बेहतर होनी चाहिए, नहीं है। जो दुःख-दर्द, दंश, दलन, दुर्भाग्य व दूर्वाग्रह पिछली सदी के पूर्वार्द्ध (1900-1950) के दौरान थे, कमोबेश वर्तमान सदी के पूर्वार्द्ध में भी वैसे ही हैं, थोड़ा दृश्यरूप में भले ही प्रतीत हो रही है, किन्तु तत्वतः आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, मानसिक व सांस्कृतिक विसंगतियाँ, विषमतायें व विडम्बनायें वैसी ही हैं।
अभी वही है निजामे कोहना, अभी तो जुल्मो-सितम है
अभी मैं किस तरह मुस्कुराऊँ अभी तो रंजोअलम वही है,
अभी वही है उदास राहें, वहीं हैं तरसी हुई निगाहें,
शहर के पैगम्बरों से कह दो यहाँ अभी शामे-गम वही है।
निराला का ‘‘स्वप्निल सवेरा’’ और साह...