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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
लोहिया का लार्ड लिनलिथगो के नाम खुला-खत
-दीपक मिश्र
दीपक मिश्र (1936 में लार्ड लिनलिथगो भारत के वायसराय बन कर आए। वे यहाँ 1944 तक रहे, यह दौर काफी उच्चावचन भरा रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध फारवर्ड ब्लॉक गठन,अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स मिशन जैसी घटनायें इनके ही कार्यकाल में हुई। इनका मानना था कि सोशलिस्टों के कारण ही भारत छोड़ो आंदोलन इतना सफल व उन्मादी रहा। डा0 लोहिया ने इन्हे पत्र लिखकर आगाह किया था कि क्रांति की राह का रोड़ा न बनें।) प्रिय लार्ड लिनलिथगो, मैं नहीं जानता कि मैं आपको यह क्यों लिख रहा हूँ? मैं आपकी व्यवस्था से कुछ भी अपेक्षा नहीं रखता। घूसखोरी और कत्लेआम जो आपके नीचे हो रहा है और वह ताकत जिसका मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ मेरे देश में साथ-साथ नहीं रह सकती और आप दुनिया की और उसके अंतरात्मा की ओर कांगे्रेसियों के अपराधों की और उन्हें मिलने वाले अंतिम निर्णय की बात करते हैं। यह हल्क-फुल्के में बात करने वाले विचार नहीं है। शायद इसीलिए मैं आपको लिख रहा हूँ। इतिहास ने अभी तक अंतिम निर्णय की एक ही कसौटी जानी है। क्या जनता जुल्म के सामने घुटने टेके या उसका प्रतिरोध करें? विश्व की अंतरात्मा का निर्णय आपके और आपकी व्यवस्था के विरुद्ध है और प्रतिशोध करने वाले हमारी जनता के पक्ष में। आपके लिए यह बंद किताब है। आपके बच्चों के बच्चे इसे पढ़ेंगे और शायद आप भी कुछ धुँधली स्मृतियों से। गांधी जी ने एक नई कसौटी दी है कि जुल्म को खत्म करो, बिना किसी के मारे और नुकसान पहुँचाएं। इसे अभी तक सार्वभौम कसौटी के रूप में नहीं स्वीकार किया गया हैं सिर्फ भारत में ही इसे आजमाया गया है और उसे सत्यापित करने का प्रयास किया गया है। क्या आप इस कसौटी को मानने के लिए सचमुच तैयार हैं। क्योंकि आप यह भी जानते होंगे कि इसके साथ कुछ दायित्व भी जुड़े हुए हैं। आपने इस कसौटी को कांगे्रस के उन नेताओं पर लागू करने का प्रयास किया है जो 9 अगस्त से पहले बंदी बनाए गए थे और बाद में भीड़ और जाने-माने कांगे्रेसियों पर। आपने इन तीनों को कमतर पाया है। ऐसा ही होना चाहिए था। जब आपकी व्यवस्था सारी दुनिया में घोरतम हिंसा के लिए जानी जाती है तब आप निर्णायक बनें, यह उचित नहीं बल्कि कोई निष्पक्ष व्यक्ति किसी दूसरे निष्कर्ष पर पहुंचेगा। आपने गांधीजी और अन्य कांगे्रसी नेताओं पर ऐसी योजनाएँ और संगठन तैयार करने का इल्जाम लगाया है जिसके फलस्वरूप हिंसा हुई। अगर आप जमीन की फुसफुसाहट सुन लेते और बाद में अधिक आग्रह करते तब आप जानते कि इन कांगे्रेसियों के पास न ऐसी कोई योजना थी और न संगठन। हिसांत्मक या गैर- हिंसात्मक जैसा कि मैं योजना और संगठन शब्दों से समझता हूँ और जैसा कि आप का भी यह आक्षेप सर्वथा गलत है। कोंग्रेस के पास ऐसी कोई योजना न थी और आप ख़ामख़्याली में भूतप्रेत देख रहे हैं। अहिंसक क्रान्ति पहाड़ों के नीचे के पानी की तरह व्याप्त है या उस मिट्टी की तरह है जो सैकड़ों धाराओं में बहती है, कोई नदी नहीं खोदी जाती है। 9 अगस्त को जो क्रान्ति शुरू हुई इसके ऊपर कोई योजना नहीं थोपी गई। वहां सिर्फ भारत के जीवन की यर्थाथ उसके जीवन की महान स्मृतियाँ भी सम्पूर्ण जनता की स्वाधीन होने की उत्कृष्ट कामना थी। उस गुरु की 23 वर्ष की साधना थी जिसने इस यथार्थ को एक नशे में बदला, सिर्फ यही था। मैं आपको जनता की ललक के बारे में बता दूँ जिसने आपसे कहीं अधिक कम से कम पांच गुना अधिक सदियों तक यह सब सहा है। एक अमूर्त वस्तु है। न इसे कुत्तों का झुंड पकड़ सकता है और न ही गोलियाँ मार सकती हैं। आपने दसियों हजार लोगों को मार दिया है, जला दिया है, लूट लिया है, बलात्कार कर उन पर जो जबरदस्ती की है, संगठनों को तोड़ दिया है, पता नहीं कितने लाख लोगों को गिरफ्तार किया है। पर क्या नए लोगों और संगठनों ने इस ललक के लिए आपको स्वेच्छा से अर्पित नहीं किया है। चाहे जो कुछ भी हो, यह ललक आपका पीछा करेगी जब तक कि आप टूट नहीं जायेंगे। आप सत्याग्रह को तोड़ने में कामयाब हो सकते हैं लेकिन इससे पहले कि आप ऐसा कर सकें एक नई और अधिक सत्याग्रह उठ खड़ी होगी। आपको चैन नहीं मिलेगा। यदि मिट्टी में स्वाधीनता की ललक है तो कुम्हार एक क्रांतिकारी तकनीक है जिसे उन लोगों ने गढ़ा है जिन्होंने जानबूझकर हथियारों को फेंक दिया है। जनता के उस महत प्रयासों के पीछे जिसमें उद्योगों को बंद कर कस्बों और शहरों के बीच व्यापार स्थगित कर, नागरिक प्रशासन को हटाना, यातायात को भंग करना, वहाँ यह महान नई तकनीक है। यह तकनीक हथियारों के टकराव की नहीं है बल्कि देश में वह शून्यता पैदा करने की है जिससे कि स्वेच्छाचारी ताकतें आत्म-समर्पण कर दें। यह तकनीक कुछ लोगों द्वारा शहरों में ताकत हथियाने की नहीं है बल्कि सारे देश से जालिम शासन को हटाने की है। यह तकनीक शासन हथियाने की नहीं बल्कि उसे तोड़ने की है। इसी से ही स्पष्ट होता है कि भारतीय क्रांति ने वह आयाम दिया जिसके सामने फ्रांस और रूसी क्रांति भी मध्यम पड़ जाती है। यह क्रांति हथियारबंद अल्पसंख्यक का काम नहीं है बल्कि समग्र जनता की है। पहली बार इतिहास में सामान्यजन विद्रोही बना है। उसका हथियार उसकी आत्मा है। उसके पास कोई असलहा नहीं है। आपने भी हिंसा की बात की है। एक वाक्य को सुनें। इरादे के पक्के बीस हजार निहत्थे लोगों की भीड़ ने 18 अगस्त को गांव के एक पुलिस थाने पर हमला किया। वहां के थानेदार ने उनसे विनती की कि वह उन्हें थाने से अपनी औरतों और बच्चों को निकालने की अनुमति दें और उसके बाद उस पर कब्जा करें। हम हिंदुस्तानी विश्वासी लोग हैं। भीड़ चुपचाप शांति से बाहर अहाते में बैठ गई। कुछ देर बाद भीड़ ने देखा कि कुछ सिपाही और वह थानेदार एक बंदूक लेकर छत पर चढ़ गया। दरवाजे अंदर से बंद कर लिए गए थे। 23 साल का एक नौजवान इस धोखे से लड़ना चाहता था। वह छत पर चढ़ा और थानेदार का हथियार छीनने की कोशिश की। उसे चारो तरफ से संगीनों से गोद दिया गया और गोलियों से उसका शरीर छलनी कर दिया गया। वहाँ इस गोलीबारी से 18 आदमी मरे और 200 जख्मी हुए। भीड़ वहाँ से नहीं हटी। गोली बारूद खत्म हो गया। भीड़ ने थाने पर कब्जा कर लिया और उसके बाद जो हुआ वह दिव्य दृश्य था। थाना जला दिया गया लेकिन सिपाहियों को बिना कोई हानि पहुँचाए जाने दिया गया। मैंने जानबूझकर इस थाने का नाम नहीं दिया है। मैं जानता हूँ कि देश में ऐसे सैकड़ों वाकिए हुए हैं। आपके लोगों ने भारतीय माताओं को नंगा किया है, उन्हें पेड़ों से बाँधा है, उनके अंगों के साथ खिलवाड़ किया है और उन्हें मारा है। आपके आदमियों ने भारतीय माताओं को नंगा किया, उन्हें सड़क पर आने को मजबूर किया, उनके साथ बलात्कार किया और उन्हें मारा। आप फासिस्ट प्रतिशोध की बात करते हैं। आपके लोगों ने उन देशभक्तों के साथ जिन्हें आप न पकड़ सके उनकी पत्नियों की हत्या की है। जल्दी वह समय आएगा जब आपको और आपके लोगों को इस साक्षी का सामना करना पड़ेगा। आप कहते हैं कि आपने एक हजार से कम देशभक्तों को मारा है। आपने 50 हजार से अधिक लोग मारे हैं और उनसे कई गुना जख्मी किए हैं। मुझे 15 दिन बिना पुलिस द्वारा बाधा पहुँचाए सारे देश में दौरा करने का मौका दें। मैं आपको 10 हजार से अधिक मारे गए लोगों के नाम और पते दे दूँगा, और नामों का देना मै मानता हूँ कि मुश्किल होगा। यह शायद तभी हो सके जब मेरा देश आजाद हो जाए। पिछले छह महीने में बीसियों जालियाँवाला बाग दोहराए जा चुके हैं। फर्क सिर्फ एक है। आपका निजाम अब ज्यादा और अधिक कातिल है लेकिन हमारी भीड़ें अब उस तरह नहीं फँसती। हिंदुस्तान के निहत्थे साधारण लोगों ने गोलियों के सामने दिव्य साहस दिखाया है और वह आगे बढ़ रहे हैं। हम करीब-करीब सफल हो चुके थे। देश के 15 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रों से आपका प्रशासन हटाया जा चुका था। आपकी सेना ने हमारे स्वाधीन क्षेत्रों को दुबारा जीता। क्या आप समझते हैं कि आप ऐसा कर सकते हैं अगर हमारी जनता हिंसा अपनाती? आपकी सेना दो हिस्सों में बँट जाती-हिंदुस्तानी और ब्रिटिश। अगर हम सशस्त्र क्रांति की योजना बनाते और हमारी भीड़ें हिंसा का सहारा लेती, लिनिलिथगो! आप विश्वास करें आज गांधीजी स्वाधीन जनता और उनकी सरकार से आप क्षमा याचना करते होते। लेकिन मैं नाखुश नहीं हूँ। भारत की सदा ही यह नियत ही रही है कि वह दूसरों के लिए कष्ट सहे और गलत रास्ते से लोगों को हटाए। निहत्थे सामान्यजन का इतिहास 9 अगस्त की भारतीय क्रांति से शुरू होता है। 50 हजार देशभक्तों की मृत्यु और उनसे कहीं गुना जख्मी लोगों की पृष्ठभूमि में आपके सौ से कम लोगों की मृत्यु और दुखद है इस दुनिया में दुःखद मिश्रण अवश्यंभावी है। आश्चर्य की बात है कि यह मिलावट ज्यादा न थी। इस शक्ति का कोई रहस्य होना चाहिए। लोगों के मार्गदर्शन के लिए कोई संगठन न थे जिसे कि आपने तोड़ा है। सिर्फ आंतरिक अनुशासन था। लाखों उत्तेजित लोगों की भीड़ ने अत्यन्त गंभीर उत्तेजना के बीच जो अनुशासन दर्शाया वह अंदर से ही आ सकता है। आप इस विस्मयजनक मानवता को नहीं समझ सकते। हम प्राचीन लोग हैं। हमें 23 साल तक एक महात्मा गुरु से प्रशिक्षण मिला है। आप एक राष्ट्र को कोस रहे हैं। कौन कह सकता है कि निहत्थे सामान्यजन की इस कथा में कुछ खेदजनक कमियाँ न होंगी। अब कुछ प्रसिद्ध कांगे्रसवालों की गतिविधियों पर मैं आपका ध्यान आपके गृह विभाग के गुप्त सर्वेक्षण नं0 2 का हवाला दूँ जहाँ आपके सचिव ने अहिंसक हिदायतों की जानकारी दी है। बेहतर होगा कि आप रायल इंडियन नेवी के अंग्रेज अफसरों से कि जिन्होंने कांग्रेसियों की गतिविधियों का अनुसरण किया और इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि उन्हें ऐसा करना पड़ा। आपका प्रशासन फुर्ती से चैट करना जानता है। 9 अगस्त के कुछ ही दिनों में आप सत्याग्रहियों के सामने हार गए। मैं शुद्ध अंतःकरण से कह सकता हूँ कि अन्य देशों के क्रांतिकारियों से भिन्न, सत्याग्रही शत्रुओं को मारने और हानि पहुँचाने से बचे हैं। निरपराध लोगों पर आक्रमण न करके, जैसा कि आपके देश के क्रांतिकारी करेंगे। उन्होंने जनता के निकृष्टतम हत्यारों को न मारा, न हानि पहुँचाई। क्या किसी से ऐसे क्रांतिकारी के बारे में सुना है कि जो ऐसे कामों से बचे जिससे जीवन को हानि होती। लेकिन ऐसा हमारे देश में नहीं हुआ है। इसके कुछ छिटपुट अपवाद हैं। हो सकता है कि वह कुछ बढ़ जाएँ। मूलतः भारत और ब्रिटेन के बीच युद्ध का निर्णय हो चुका है। सिर्फ जिसका निर्णय नहीं हुआ है वह है कि आखिरी लड़ाई किस तरह होगी। आपने साथियों और निर्णय की बात की है। आप सिर्फ एक ही काम कर सकते हैं वह है बंद दरवाजों में मुकदमा कर कानून की हत्या करें। जबकि आपकी पुलिस और सिपाही देखते ही उन्हें गोली न मार दिए होते। अगर आप में साहस है तो खुला मुकदमा करें। तब भी आप और आपके आदमी फैसला करेंगे। हम सभी जीने के प्रेमी हैं और भविष्य के बारे में जिज्ञासु भी। आपकी साक्षी एक मजाक होगी और अर्थपूर्ण। हम भविष्य के बारे में उत्सुक हैं। चाहे आप जीतें या ध्रुव राष्ट्र। हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा होगा। आशा की सिर्फ एक किरण है स्वतंत्र भारत जो इस युद्ध का एक लोकतांत्रिक अंत कर सकेगा। आपने अपने कंधों पर जिम्मेदारी ली है जिसे आपकी सब जनता भी नहीं उठा सकती। एक समय पांटियस पाइलेट था। उसकी कुछ शान थी। वह सत्य पर हँसता था और अविश्वासी था। आप ऐसी बात करते हैं कि जैसे आप आस्तिक हों। इतिहास आपका नाम भूलना चाहेगा और जब तक ऐसा न करें गहरा दर्द बना रहेगा। अपनी ही अंतरआत्मा से घबराकर या जनता के आक्रोश से अभी भी आप गांधीजी को रिहा कर सकते हैं। पर आप करें या न करें। आजादी की आग आपका पीछा करेगी जब तक कि आप घुटने न टेक दें। मैं यह पत्र आपको उस साधन से भेज रहा हूँ जो निरंकुश राज में मुझे उपलब्ध है। भवदीय राममनोहर लोहिया
अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...