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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
क्रूरतम यातना के स्याह दिन
-डॉ लोहिया
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिया हुकूमत कितनी जालिम थी और हमारे अजदादों-पूर्वजों ने कितना जुल्म सहा है।’’ पंजाब हाईकोर्ट को 13 दिसम्बर, 1944 और 19 जनवरी, 1945 को दिए गए आवेदन पत्र में मैंने लाहौर किले में अपनी नजरबन्दी का संक्षिप्त विवरण दिया है। उसे मैं यहाँ संक्षेप में और जल्दी में कुछ घटनाओं के साथ दोहराना चाहूंगा। इसमें मैं कुछ नाम व तारीखे भी जोड़ूँगा। यद्यपि यह मेरा पूरा बयान नहीं है। लाहौर किले के अत्यन्त क्रूर पक्ष तभी बताए जा सकते हैं जब कोई आराम से बैठ सके और उसमें लम्बे और कष्टकर अनुभव को बयान करने की क्षमता हो। इनमें से प्रभावी है उन क्रूर तारीखों की आजमाइश जो इच्छा शक्ति को तोड़ने के लिए किए गए। मैं 20 मई, 1944 को बम्बई में गिरफ्तार हुआ और दो-तीन मौकों को छोड़कर मुझे बम्बई पुलिस मुख्यालय ले जाया गया और आर्थर जेल में नजरबंद किया गया। 20 जून को मुझे केन्द्रीय सरकार का 7 जून का एक आदेश दिया गया और 22 जून को मुझे लाहौर लाया गया। इस आदेश में कहा गया था कि मुझे ‘‘कहीं पर भी जिनमें पंजाब प्रान्त भी शामिल है नजरबंद किया जा सकता है’’। इस आदेश का मुख्य उद्देश्य मुझे शारीरिक यातना देना था। वह जारी रहा। नजरबंदी तो प्रासंगिक थी। यह दोनों ही उद्देश्य थे। पूछताछ के कमरों में मेरी तलाशी ली गई और मेरी किताब, कलम, ले ली गई और फिर अंत में मुझे कोठरी में ले जाया गया और वहाँ मेरी तलाशी ली गई। मुझसे इसी जगह में नहाने-धोने की अपेक्षा की जाती थी। इसके दरवाजे और फर्श के बीच की जगह गन्दे पानी के लिए जो नाली थी उसी से मुझे अंदर खाना दिया जाता था। सारी रात एक तेज बल्ब मेरे सिर के पास जलता रहता था। कुछ ही कदम पर इन कोठरियों के सामने की दीवार थी जो हवा को रोकती थी। मच्छरों की भरमार थी और पास का कंकरीट लाहौर के तापमान को और अधिक ब़ढ़ा देता था। दूसरे दिन से ही पुलिस अधिकारियों ने मुझसे गालीगलौज करना प्रारम्भ कर दिया। मुझे सिद्धान्तहीन और कायर कहते रहे। जब वह मुझे सच्चाई और सद्व्यवहार के विषय में भाषण देते तो उनमें से एक मेरे ऊपर चढ़ जाता और मुझे खींचता दबाता रहता और यह क्रम लम्बा चलता रहता। मैं ऐसे में कुछ नहीं खा सकता था। यह भूख हड़ताल नहीं थी, खाना निगलने में असमर्थता थी। दिन भर वह मुझे हथकड़ी डालकर तफ्तीश के कमरे में पूछताछ करते रहते और एक मध्य रात्रि जो मेरे आने का शायद चैथा दिन था, वह मुझे एक घंटे के लिए कोठरी से निकालकर अपने कार्यालय में ले गए। छठे दिन मेरी पूछताछ करने वाले सुपरिंटेन्डेन्ट पुलिस ने मुझे कोठरी के बाहर लगे नल पर नहाने देने का वायदा किया, और यह भी कहा खाना मेरी कोठरी का दरवाजा खोलकर दिया जाय और वह खुद भी अब बदजुबानी न करेगा। खाना, खाना शुरू कर मैंने शायद एक गलती की। इसके दो हफ्ते बाद तक मुझे कुछ राहत रही। वह भी अपने दफ्तर में मुझे सारा दिन हथकड़ी लगाकर रखते और खुशामद के साथ-साथ मुझे अज्ञात का भय दिखाकर डराते भी। इस समय सुपरिंटेन्डेन्ट पुलिस के अलावा सैय्यद अहमद और इंस्पेक्टर मुहम्मद हुसैन जो उनके पहले से कार्रवाई कर रहे थे, उनमे इंस्पेक्टर महाराज किशन भी आ गए। मैं अदालत में जाने को तैयार था और जिन कामों में मैं अकेला था उसे इंकार करने का भी मेरा कोई इरादा न था। मैं केन्द्रीय सरकार को यह भी लिखकर देने को तैयार था कि मैं ऐसे कामों को स्वीकार करुँगा अगर वे ऐसा चाहते हैं। मध्य जुलाई में मुझे पाँच दिन-रात लगातार जगाए रखा गया। आधा घंटे के स्नान के अलावा उन्हेांने मुझे बराबर अपने दफ्तर में हथकड़ी लगाकर रखा। जब वे मुझ पर भाषण न झाड़ते तब वह सत्याग्रहियों को भला-बुरा कहते रहते। मुझे लड़खड़ाती हालत में छोड़ वह मेरे धीरज और शक्ति की परीक्षा लेने के बाद वह मेरी खुशामद भी करते और पश्चाताप में मेरे पैर छूने का अभिनय करते। जब मैंने उन्हें लिखकर देने को कहा था वह उसे जुबानी तो मानने को अब तैयार थे। एक बार उन्होंने मेरे प्रस्ताव को अधिक व्यापक बनाने का प्रयास किया और दो रात मुझे बिना सोचे यह करते रहे और फिर मेरी खुशामद करने लगे। अगस्त के शुरू तक यह मामला रहा कि जो पुस्तिकाएं और भाषण मैंने लिखे, और दिए थे उन्होंने उनके संक्षेप तैयार किए। पर वह इतना ही नहीं चाहते थे। इससे उनकी भूख और बढ़ गई। वह केन्द्रीय और बंगाल गुप्तचर विभाग की रपट के वक्तव्य मुझे पढ़कर सुनाते, जो उनके अनुसार मैंने दिए थे। वह शायद मेरे ऊपर यह असर डालने के लिए करते कि उनके पास केन्द्रीय सूचना है और वह मेरा भार हल्का करने के लिए उनकी पुष्टि या इंकार चाहते हैं। मैं इतना ही कह सकता हूं कि महत्त्वपूर्ण मामलों पर उनके पास कोई जानकारी न थी और थी भी तो गलत, और अन्य मामलों में भी ऊपरी ही थी। बार-बार गुस्से से दोहराकर उन्होंने मेरी पूछताछ को अपना बना लिया था जो मेरी न थी और जिसका श्रेय वह अपने खोज कौशल को देना चाहते थे। जहां कही भी वह थी, चाहे अज्ञान के डर मे ंया इस बेहूदा धारणा पर कि कोई व्यक्ति कहीं भी अपने कार्यों को स्वीकार कर सकता है। मैंने एक मौलिक गलती जरूर की थी जिससे मैं कुछ ऐसी स्वीकारोक्तियों में फंस गया, जिनमें मैं अकेला भागीदार न था। अगस्त के शुरू में उन्होंने एक दूसरा तरीका अपनाया। दोपहर से लेकर आधी रात तक सिर्फ चार घंटे को छोड़कर उन्होंने मुझे बराबर खड़ा रखा। जब मैं अपने आप खड़ा न रह सका तब मुझे दोनों तरफ से एक आदमी ने ऊपर उठाए रखा। दूसरे मौके पर एक इंस्पेक्टर ने मेरा चश्मा छीन लिया था। मैं दूर की चीज नही देख सकता था। मेरे चश्मे का नम्बर 5 है। मैंने अपनी आंखे बंद कर ली। फिर दोबारा ऐसा नहीं किया गया। मैं इतना ही कह सकता हूं कि अगले कुछ हफ्ते तक मैं अपने पैरों की पिंडलियों पर काले दाग देखता रहा। इसके बाद फिर इसका भी अंत इंस्पेक्टर द्वारा खुशामद और माफी माँगने से हुआ। 10 अगस्त से 30 अगस्त तक सुपरिंटेन्डेन्ट सैय्यद अहमद बाहर दिल्ली में रहे। वह शायद हिदायत छोड़ गए कि जब तक वह न लौटें तब तक मेरे धीरज और ताकत की सीमा से ज्यादा परीक्षा न ली जाए। मुझे दिन में पूछताछ के कमरे में ले जाया जाता, और मैं उनकी बचकाना बातें चापलूसी या अज्ञात भविष्य की धमकियाँ सुनता रहता। मैं कुछ नहीं बोलता और न मुझे कुछ कहना ही था। वह अपनी रपट पढ़ते रहते। मुझे लगा कि वह इस तरह मित्र राष्ट्रों के राष्ट्राध्यजों और दूतावासों तथा जर्मन या जापानी एजेंटों के बारे में मुझसे पूछताछ करेंगे। जब शरारत में कभी भी मैं उनके मन में अंतर्राष्ट्रीय संदेह पैदा करुँगा। एक बात जो हर समय मेरे मन में बनी रहती वह थी, गंदी नाली की तस्वीर। और किसी तरह यह खुफिया विभाग के लोग यह पानी पीने को मजबूर करते हैं। सुपरिन्टंेडेन्ट के लौटने पर मुझे दोबारा 2 से 6 सितम्बर तक जगाकर रखा गया। सुपरिंटेन्डेन्ट अपने साथ कुछ फोटोस्टेट नकलें और रपटें लाया था। भारी पलकों से मुझे यह निष्प्रभावी भाषण सुनने पड़ें। सुपरिन्टंेडेन्ट का यह आखिरी प्रयास था और 10 सितम्बर को पुनः वह दिल्ली लौट गया। इंस्पेक्टर महराज किशन पहले ही हटा दिए गए थे। मुझे नहीं मालूम था कि वह हटा लिए गए हैं। मैं इतना ही जानता था कि वह फिर कभी प्रकट हो सकते है। इंस्पेक्टर मुहम्मद हुसैन और उसके सहयोगी सिपाहियों और संतरियों ने मुझे 14 से 30 सितम्बर तक, सिर्फ ईद के दिन तक छोड़कर बराबर जगाए रखा, ईद के दिन तक मुझे रात में अपनी कोठरी में ले जाया जाता और कुछ ही देर बाद घंटे आधा घंटे में दोबारा दफ्तर में जगाने के लिए लाया जाता था। रात में लगभग तीन बार ऐसा किया जाता। ईद के दिन से तो मुझे बराबर जगाए रखा गया। इस महीने जब मुझे जगाए रखा गया मुझे खाना छोड़ना पड़ा और मैं सबेरे सिर्फ एक गिलास दूध और आधा पानी पीता, और शाम को गुनगुना पानी जिसे वह चाय कहते । मुझे पीने को भी कम पानी मिलता क्योंकि जो सिपाही मुझे जगाए रखने के लिए लगाए गए थे वह इंस्पेक्टर से जुड़े थे और वह कहते थे कि मुझे दफ्तर से बाहर ले जाने की इजाजत नहीं है। मैं न अपने पैर फैला सकता था और न चल सकता था। अगर सिपाही समझते कि मैंने आंखे बंद कर ली है, जबकि वह सिर्फ भारी थी। वे मेरा सिर हिलाते रहते या मेरी हथकड़ी में लगी भारी जंजीर को खीचते। अब इंस्पेक्टर अपनी गंदी जुबान की पराकाष्ठा पर था। हरामजादा जैसे शब्द तो उसके लिए आम थे। 23 सितम्बर को जब उसने मुझे खड़ा करने का प्रयास किया तब मैंने उससे कहा कि वह अकेले ऐसा न करे। उसने अपनी सिपाही और हथियारबंद संतरी को बुलाया जो मेरी चैकसी करते रहे। यह दोनों मुझे एक तरफ से अपने हाथ में उठाए रहे और इंस्पेक्टर बदजुबानी करता रहा। मुझे यह आतंक और स्थिरता काफी मिल चुकी थी। मुझे बराबर जगाए रखा जाता था। मेरे साथ पशुवत व्यवहार किया जा रहा था और तब मेरे अंदर यह इच्छा उठी कि मैं अपनी नजर में उठूँ और इस निष्क्रियता को त्यागूँ। मैंने इंस्पेक्टर से कहा कि वह समस्त आतंक और दुष्कर्मों में दक्षता प्राप्त होने के बावजूद किले का कायर है। इस पर उसने मेरे गले की तरफ हाथ बढ़ाया फिर पीछे हटा लिया और उसी तरह सब-इंस्पेक्टर ने भी जिसने मेरा सिर हिलाने की कोशिश की थी। इसके बाद उसकी कुछ फूहड़ बातचीत में कमी होने लगी। पुनः 25 सितम्बर को पौ फटने से पहले इन दिनों में मेरा सिर फटा जा रहा था, तब इंस्पेक्टर चाहता था कि मैं अपनी कुर्सी खिसकाकर सामने के बिजली के बल्ब की ओर कर दूँ। जब उसने मुझे कुर्सी से उठाने की कोशिश की मैंने उसे पुनः चेतावनी दी कि वह मुझे हाथ न लगाए। उसने सिपाही और संतरी को पुकारा। उन तीनों ने मुझे कुर्सी से उठाया लेकिन वे मुझे खड़ा न कर सके। तब सिपाही और संतरी ने मुझे दोनों तरफ से उठाया। इंस्पेक्टर ने मेरे टखने दबाए। बाद में उसने संतरी से अपनी रायफल अलग रखने को कहा और फिर उसने मुझे चटाई वाले फर्श पर गिर जाने दिया और सिपाही से कहा कि वह मेरे हथकड़ी लगे हाथों को चक्की की तरह घुमाए। यह मेरे नहाने के समय तक जारी रहा। मेरी नाक में खून के थक्के जमने लगे और मेरे थूक में खून आया और अक्टूबर में मुझे दस दिन तक बुखार रहा। डाक्टर ने उसे सात दिन का बुखार बताया। दीवाली के दिन मेरे कोठरी बदली गई, वह किले में सबसे खराब थी। कुछ घंटों के लिए मुझे किले के दफ्तर के तहखाने में ले जाना था जहाँ मुझे बताया जाता था कि वहां एक नई प्रक्रिया शुरू होगी जिसके सामने बड़े से बड़े बहादुर और कठोर अपराधी भी हिम्मत हार जाते हैं। नए परिवेश में यही वाक्य दोहराया जाता। इसे मैं सहज ही समझता। चिरौरी भी कभी बंद नहीं हुई। क्या मैं उन्हें एक ऐसा पता दे सकता हूँ जहाँ एक ट्रांसमीटर पकड़ा जा सके, कोई विदेशी संपर्क और जब वह नहीं तो रुपया देने वाले या ठहरने के पते या वह जगहें जहाँ हथियार रखे गए। 25 अक्टूबर को यह यंत्रणा समाप्त हुई। मैं अपनी कोठरी में बना रहा। दिसम्बर के शुरू में मुझे समाचार पत्रों और लिखने की सामग्री की इजाजत मिली। 13 दिसम्बर को पंजाब हाईकोर्ट मे हैबियस कार्पस की अर्जी दी। 19 जनवरी को मैंने नई संशोधित अर्जी दी। 30 जनवरी को मेरे आवेदन की सुनवाई हुई और शपथ लेकर मुझसे पूछताछ की गई। विद्वान न्यायाधीश ने मेरे आक्षेपों को गंभीर समझा और उनके लिए भारत सरकार से हलफनामा मांगा। बाद में वह सरकार के इस तर्क से प्रभावित हुए कि वह मुझे नजरबंदी के दूसरे स्थान पर भेज देंगे। मेरे विचार से यह निष्कर्ष गलत था कि मेरी नजरबंदी आदेश का मूल उद्देश्य लाहौर किले में मेरा स्थानान्तरण था। तकनीकी पक्ष से पृथक, विद्वान न्यायाधीश को मामले के तथ्यों पर अपनी जाँच जारी रखनी चाहिए थी। एक समय तो मुझे ऐसा लगा कि यह मामला गंभीर था जिसका इधर या उधर स्पष्ट निर्णय होना चाहिए। फेडरल कोर्ट में मेरी अर्जी इसलिए अस्वीकृत हुई कि वह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर थी। केन्द्रीय सरकार को दो पत्र और इलाहाबाद हाईकोर्ट को एक अर्जी भेजने के बाद अब मुझे अपने वकील श्री मदन पित्ती से मिलने की इजाजत मिल गई है और अगली कार्यवाही के लिए यह नोट लिख रहा हूँ। 27 अक्टूबर, 1945 आगरा सेंट्रल जेल। "डा0 राममनोहर लोहिया"  
अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...