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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
एक-दूसरे के पूरक हैं स्वतंत्रता संग्राम एवं समाजवादी आंदोलन
-शिवपाल यादव
शिवपाल यादव भारत की आजादी की लड़ाई सही मायने में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में निर्णायक मोड़ पर पहुँची। इसे सिर्फ संयोग कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि इसी काल-खण्ड में समाजवादी आंदोलन का सूत्रपात व विस्तार हुआ, पाँचवे दशक में देश आजाद हो गया। मुगल बादशाह जहाँगीर (1605-1627ई0) के समय प्रथम अंग्रेज मिशन कैप्टन हॉकिन्स भारत आया। जेम्स प्रथम के राजदूत टॉमस रो ने जहाँगीर से सूरत में कारखाना खोलने और व्यापार करने की इजाजत ली। 1757 में लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और 1764 में अंगे्रजों ने बक्सर युद्ध के मुगल सम्राट शाह-आलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा बंगाल के नवाब मीर कासिम की संयुक्त सेनाओं को हराकर हिन्दुस्तान में ब्रिटानिया हुकूमत की जड़ें स्थापित कर दी। 1857 में भारत की आजादी के लिए प्रथम अखिल भारतीय संग्राम हुआ, यह संग्राम बलिदान और दमन की अभूतपूर्व कहानी है। ब्रिटानिया हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से बागडोर लेकर भारत को विधिवत् अपना उपनिवेश घोषित कर दिया। लार्ड कैनिंग ब्रिटिश क्राउन के प्रथम वायसराय बने। इसके बाद से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कई किश्तों धाराओं में बँट कर चला। 1928 में चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू जैसे विचारवान क्रांतिकारियों ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन बनाया। इस संगठन के दो लक्ष्य थे, भारत को आजाद कराना और यहां समाजवाद की स्थापना करना। रिपब्लिकन का अर्थ गणतंत्र और सोशलिस्ट का अर्थ समाजवाद होता है। 8-9 सितम्बर 1928 को दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के पुराने किले में संगठन की पहली बैठक हुई। कहीं-कहीं हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन का नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी भी मिलता है, इसे राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का अग्रगामी संगठन अथवा विस्तार कहा जाय तो गलत न होगा, जिसका गठन भारत को संप्रभु व गणतांत्रिक राष्ट्र बनाने के पवित्र ध्येय से हुआ था। काकोरी कांड और बिस्मिल-अशफाक की फाँसी के बाद यह संगठन बिखर गया। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी/एसोसिएशन ने 1928 से लेकर 1931 (चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह की शहादत) तक समाजवाद को भारत का मधुर सपना बना दिया। कांगे्रस के अध्यक्ष पट्टाभि सीता-रमैया ने अपनी पुस्तक में स्वीकारा है कि भगत सिंह की लोकप्रियता महात्मा गांधी के समान पहुँच चुकी थी। क्रांतिकारी साहित्य और गतिविधियों की धूम चारों ओर फैल चुकी थी। नेता की लोकप्रियता उसके विचारों और विचारधारा की स्वीकारिता की द्योतक होती है। 1930 तक स्वतंत्रता और समाजवाद भारतीय जनमानस का अंतिम लक्ष्य और जीवन-दर्शन बन चुका था। इसी दौरान 1933 में डा0 राममनोहर लाहिया जर्मनी से पीएचडी की डिग्री हासिल का भारत लौटे। 1934 में कांगे्रस के अंदर ही आचार्य नरेन्द्रदेव जैसे विराट व्यक्तित्व वाले विद्वान नेता के नेतृत्व में समाजवादियों का अखिल भारतीय मंच कांगे्रस सोशलिस्ट पार्टी बनी। काग्रेस के अंदर समाजवादियों के दबाव के कारण ही 1937 के फैज़पुर अधिवेशन में पंडित नेहरू ने समाजवादी कार्यक्रमों के महत्व को स्वीकारा। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि 1928 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन के गठन के बाद ही 1929 में हुए लाहौर अधिवेशन में ‘‘पूर्ण स्वराज्य’’ हासिल करने का पहली बार संकल्प लिया गया। भारत के सभी प्रतिनिधि महान नेताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान समाजवाद की पैरवी की। महात्मा गांधी ने कहा, मुझे सच्चा समाजवादी समझा जाना चाहिए। इस सीधे सादे सिद्धान्त की उपेक्षा से ही न केवल हमारे देश बल्कि दुनिया के अन्य भागों में भी भुखमरी व दरिद्रता दिखाई पड़ती है। इसको प्राप्त करने के लिए स्फटिक जैसे विशुद्ध साधनों की जरूरत पड़ती है। सच्चा समाजवाद तो हमें पूर्वजों से प्राप्त होता है, जो हमें सिखा गए हैं कि ‘‘सब भूमि गोपाल की है,’’ महात्मा गांधी के अनुसार समाजवाद भारतीय मनीषा की अनुपम देन है और इसकी सीख मनीषियों से मिलती है। सुभाष चन्द्र बोस ने समाजवादी को साम्राज्यवाद विरोधी अवधारणा घोषित करते हुए कहा था कि, सच्चे समाजवादी को साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका निभानी होगी। देश में समाजवाद की स्थापना करना हमारा अगला दायित्व होगा। डा0 राममनोहर ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण, कमला चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन, साने गुरुजी, एस0एम0 जोशी, सूरजनारायण सिंह, रामनंदन मिश्र जैसे सहयोगियों और मधु लिमये, राजनारायण, बाबू कपिलदेव, रामसेवक यादव, रवि राय, किशन पटनायक, जनेश्वर मिश्र जैसे अनुयायियों को लेकर स्वतंत्रता और समाजवाद की पताका को आगे बढ़ाया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कांगे्रस के सभी नेता गिरफ्तार हो गए। डा0 लोहिया पकड़ में नहीं आए। बाबू जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देवली कैम्प जेल में सत्याग्रहियों ने 1 महीना 3 दिनों तक कठोर अनशन किया। ब्रिटानिया हुकूमत को झुका कर ही दम लिया। उन्हें काले पानी के विकल्प के रूप में तैयार किए गए हजारीबाग जेल ले आया गया। 8 अक्टूबर 1942 को जयप्रकाश नारायण, सूरज नारायण सिंह, योगेन्द्र शुक्ल, शालीग्राम सिंह, गुलाली प्रसाद ने हजारी बाग जेल तोड़कर ब्रिटानिया हुकूमत को सीधी चुनौती दी। पांचों समाजवादियों पर इनाम रखा गया। जयप्रकाश जी को ‘‘जिन्दा या मुर्दा’’ पकड़वाने पर पारितोषिक देने की घोषणा हुई लेकिन कोई कवायद सफल नहीं हुई। पूरा देश यातना-गृह और छावनी बना दिया गया। समाजवादियों ने ‘‘आजाद दस्ता’’ बनाकर गुरिल्लावार शुरू किया। नेपाल में डा0 लोहिया, जयप्रकाश जी गिरफ्तार हुए तो ‘‘आजाद दस्ता’’ के क्रांतिवीरों ने थाने पर हमला बोल मुक्त करा लिया। ब्रिटानिया हुकूमत ने लोहिया-जयप्रकाश व समाजवादियों को अपना ‘‘शत्रु नम्बर एक’’ ‘‘सबसे बड़े षड़यंत्रकारी’’ जैसी उपाधियों से नवाजने लगी, जो एक तरह से सच भी था। 18 सितम्बर 1943 को जयप्रकाश जी गिरफ्तार हुए और 20 मई 1944 को डा0 लोहिया। देानों को पहले लाहौर फिर आगरा जेल में निरुद्ध किया गया, तब तक देश में स्वतंत्रता का वातावरण बन चुका था। देश का कोई भी कोना आजादी की गूँजानुगूँज से बचा न रहा। मैं सिर्फ इटावा का उदाहरण लूँगा। आज भी बयालीस की कहानी सुनाते हुए बुजुर्ग मिल जायेंगे। इटावा पर चंद्रशेखर आजाद-भगत सिंह वाली हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन तथा डा0 लोहिया-जयप्रकाश नारायण वाली सोशलिस्ट पार्टी का प्रभाव प्रारम्भ से रहा। 1927 में स्वतंत्रता के लिए पीला पर्चा बँटा था जिसे क्रांतिकारी योगेश मुखर्जी लाए थे। यहाँ 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मना था जिसके संयोजक नमक सत्याग्रह के अगुवा ज्योतिशंकर दीक्षित जी थे। 1942 के सशक्त आंदोलन में बाबू देशराज सिंह ने अपनी पत्नी की कुर्बानी दे दी थी। कुइया के चैधरी बाबू राम को चैधरी शालिग्राम व कमाण्डर अर्जुन सिंह भदौरिया का पता न बताने के कारण पुलिस ने गिरफ्तार कर बरेली जेल में बंद कर असहनीय यातना दी, उन्होंने शहादत दे दी पर सूचना नहीं दी। 1942 में इटावा को संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया गया। मिलिट्री के ‘‘टोमी दस्ता’’ (जिसमें एंग्लो-इंडियन सिपाही होते थे) का दहशत पैदा करने वाला मार्च ताखा की गढ़ी तक हुआ। उल्लेख करना समीचीन है कि ताखा में नमक आंदोलन (1931) के दौरान तीन सत्याग्रही शहीद हुए थे। इटावा और आस-पास के क्षेत्रों में लाल सेना, आजाद दस्ता और सोशलिस्टों के प्रभाव के कारण आजादी की लड़ाई के समय इटावा जेल हमेशा भरी रहती थी और सड़कों पर ‘‘इंकलाब’’ के नारे गूँजते रहते थे। लाल सेना के बौद्धिक प्रशिक्षण की जिम्मेदारी पंडित देवीप्रसाद दुबे जी उठाते थे। ‘‘नेताजी’’ मुलायम सिंह यादव जी जब नहर रेट आंदोलन (1954) में गिरफ्तारी देने इटावा जेल पहुँचे तो उनकी कम उम्र को देखते हुए प्रशासन व सत्याग्रहियों ने घर लौटने को कहा। पंडित देवीप्रसाद जी ने सबको डाँटते हुए नेताजी को गिरफ्तारी देने की अनुमति दी और नेताजी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। हम लागों का काम है कि अपने महान इतिहास को संजोए रखें। नेताजी अक्सर कहा करते हैं, यह बात बाबू कपिलदेव सिंह व छोटे लोहिया जनेश्वर जी भी कहते थे कि जो कौमें अपनी विरासत व इतिहास को भूल जाती हैं, मिट जाती हैं। समाजवादी आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम के नायकों को स्मृति में रखते हुए लोकजीवन जीना चाहिए। आज यदि देश उन्हें भुलाता नहीं, डा0 लोहिया की राह पर ठीक से चला होता तो प्रति व्यक्ति आय के दृष्टिकोण से 159 देशों और समग्र विकास के लिहाज से 133 देशों से पीछे न होता। आइए, कुछ उन्हें भी याद करें जो हमारे लिए शहीद हुए और अपने वर्तमान, अपनी सुख-सुविधाओं, निजी आकांक्षाओं को हमारे लिए अपने हाथों से बनाई बलि-वेदी पर न्यौछावर कर दिया।
अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...