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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
स्वतंत्रता संग्राम व समाजवादी आंदोलन के अग्रदूत डॉ0 लोहिया
-दीपक मिश्र
दीपक मिश्र डॉ0 राममनोहर लोहिया एक साथ कई किरदारों को निभाने वाले अप्रतिम विभूति थे, वे जितने महान चिंतक थे, उतने ही बड़े विद्वान और उससे कहीं अधिक बड़े राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक, यदि इतिहास की वस्तुपरक तात्विक विवेचना करें तो डॉ0 लोहिया अग्रिम पंक्ति में खड़े क्रांतिधर्मी सत्याग्रही प्रतीत होते हैं। डा0 लोहिया ने भारत की आजादी की लड़ाई में बहुआयामी भूमिका निभाई और 15 अगस्त 1947 के बाद भी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत रहे, तभी तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कलम से निकला ‘‘एक ही तो वीर रहा सीना तान है, लोहिया महान है।’’ वे गोवा के लोकगीतों के नायक बन गए, ‘‘आग्वादच्या शिवा, तुमे आमका हांडली जाग’’, पहिली माझी ओवी, पहिले माझी फूल, भक्ती ने अर्पिन लोहिया ना’’ जैसे लोकगीत आजादी के योद्धा डा0 लोहिया के लिए आज भी गाए जाते हैं। उन्होंने स्वतंत्रता को समग्र रूप में देखा, उनकी लड़ाई सिर्फ साम्राज्यवादी या औपनिवेशिक गुलामी से ही नहीं थी कि मुल्क को ब्रिटानिया हुकूमत से आजाद कराया और सत्ता की कोमल सेज पर सोने चले गए। वे लोकजीवन में एक निस्पृह योद्धा की तरह आए और सेनानी की तरह पूरा जीवन जिया और अमरत्व को प्राप्त किया। उनके पिता हीरालाल लोहिया जी सत्याग्रही थे, देशभक्ति उनके रक्त में था। 1920 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की अंतिम यात्रा में शामिल होकर उन्होंने मात्र 10 वर्ष की अवस्था में संघर्ष-पथ पर पहला कदम रखा। 14 वर्ष की उम्र में प्रतिनिधि (कमसपहंजम) बनकर कांगे्रस के अधिवेशन में भाग लिया। इण्टर की इतिहास की पुस्तक में ‘‘राइज आफ क्रिश्चियन पावर’ अध्याय में एक कोठरी में एक सौ चालीस अंग्रेजों को भारतीयों द्वारा कलकत्ते में जला कर मारने का उल्लेख था, लोहिया ने सिद्ध किया कि यह कहानी झूठी और कपोल कल्पित है क्योंकि जिन अंग्रेजों का नाम मृतकों की सूची में दिया गया था, वे भारत कभी आए नहीं और जिस कोठरी का उल्लेख किया गया था उसमें 20-25 से अधिक व्यक्ति नहीं आ सकते। इसी पुस्तक मंे छत्रपति शिवाजी को लुटेरा सरदार लिखने पर भी उन्होंने आपत्ति व्यक्त की। लोहिया के अकाट्य तर्कों के आगे अंग्रेज शिक्षक निरुत्तर थे। लोहिया की लड़ाई जितनी सामाजिक व राजनीतिक होती थी, उतनी ही बौद्धिक व वैचारिक भी। सन् 1926 में गौहाटी अधिवेशन में वे पंजाब के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। 1927 में डा0 लोहिया ने कोलकाता में आयोजित अखिल-बंग विद्यार्थी परिषद की अध्यक्षता की, इसकी अध्यक्षता पहले नेताजी सुभाषचंद्र बोस को करनी थी। सन् 1928 में डा0 लोहिया ने कलकत्ता के वार्षिक अधिवेशन में सक्रिय भूमिका निभाई। ‘साइमन कमीशन’ के विरोध में लोहिया जी की अगुवाई में कई सभाओं और बहिष्कार यात्राओं का आयोजन हुआ। 1929 में उच्चतर शिक्षा हेतु लोहिया जी इंग्लैंड पहुँचे लेकिन उन्होंने लंदन की बजाय बर्लिन का चुनाव किया। प्रो0 बर्नर जेम्बार्ट के अंदर में शोध कार्य करने लगे। लीग आफ नेंशस की बैठक में भारत के प्रतिनिधि बीकानेर के राजा गंगा सिंह जैसे ही भारत में काबिज ब्रिटानिया हुकूमत के गुण गाने लगे, दर्शक दीर्घा में बैठे लोहिया ने सीटी बजाकर और पर्चे बाँट कर पूरी सभा के मध्य अद्भुत साहस दिखाते हुए राजा गंगा सिंह के झूठ से परदा उठा दिया। दूसरे दिन लू चावै ह्यूमानिस्ट नामक अखबार में अनावृत्त पत्र छापकर दुनिया के प्रतिनिधियों में वितरित किया। इस पत्र में धारासणा में किए गए अत्याचार एवं भगत सिंह को दी गई फाँसी का मार्मिक चित्रण था। लीग आफ नेशन्स के अध्यक्ष के0 टिटलेस्क्यू (रुमानिया) ने सभी घटनाओं को स्वयं नोटिस में लिया। इस प्रकरण के बाद डॉ0 लोहिया जर्मनी और भारत दोनो देशों में चर्चित नाम हो गए। 1933 में वे हिन्दुस्तान लौटे। उनकी अद्भुत मेधा को देखते हुए कई औद्योगिक घरानों और सरकार के प्रतिष्ठानों ने नौकरी का प्रस्ताव प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भेजा किन्तु लोहिया की आँखों में एक ही सपना था, भारत को आजाद कराकर यहाँ समाजवाद की स्थापना करना। 1933 तक सविनय अवज्ञा समाप्त हो चुकी भी। डॉ0 लोहिया कांगे्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुडे़। वे 17 मई 1934 की बैठक में ही समाजवाद के साथ पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव जोड़वाना चाहते थे किंतु आचार्य जी के समर्थन के बावजूद संपूर्णानंद व मीनू मसानी के विरोध के कारण पारित न हो सका। 21 अक्टूबर 1934 को बंबई में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का विधिवत् गठन हुआ, सम्पूर्णानंद जी अध्यक्ष व लोकनायक जयप्रकाश नारायण महासचिव बने, इसके मुख-पत्र ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ के प्रकाशन व संपादन की जिम्मेदारी डॉ0 लोहिया को मिली। इसी बीच डा0 लोहिया ने महात्मा गाँधी के ग्राम सुधारों पर टिप्पणी करते हुए आजादी को अधिक प्राथमिकता देने की वकालत की। 1936 में लोहिया को कांगे्रस के परराष्ट्र विभाग का सचिव बनाया गया, उन्होंने साम्राज्यवाद विरोधी विदेश नीति बनाई। फैजपुर अधिवेशन में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा ‘‘भारत का अस्तित्व ब्रिटिश साम्राज्य से अलग है, भारत अब एंथोनी, ईडन अथवा ब्रिटिश सरकार की राजनीति का न गुलाम है न पाबंद। भारत की नई विदेश नीति है।’’ उन्होंने परराष्ट्र संबंध विभाग के लिए नागरिक स्वातं×य, भारतीय विदेश नीति, चीन और हिन्दुस्तान, तथा विदेशी ठेकेदारों द्वारा लूटमार जैसी पुस्तिकें लिखकर वैचारिक संघर्ष का आह्वान किया। राजनीति में वे अलग व विशिष्ट क्रियात्मक भूमिका निभाने के पक्षधर थे। 1938 में कांगे्रस की राष्ट्रीय कार्यसमिति के लिए चुने गए किंतु उन्होंने समाजवादी पक्ष का साथ नहीं छोड़ा। अगस्त 1938 में कांगे्रस के परराष्ट्र विभाग के सचिव पद को छोड़ने के बाद डा0 लोहिया का स्वर और अधिक मुखर हो गया। 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस बापू द्वारा समर्थित प्रत्याशी पट्टाभि सीता-रमैया को हरा कर कांगे्रस अध्यक्ष बने। यद्यपि उन्हें बाद में कांगे्रस छोड़ना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि नेताजी को सोशलिस्टों ने गुप्त समर्थन दिया था। इन्हीं झंझावातों के मध्य द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया। पंडित नेहरू ब्रिटेन का साथ देना चाहते थे किंतु डा0 लोहिया अंग्रेजों का साथ न देने के पक्ष में थे। सार्वजनिक रूप से ब्रिटानिया हुकूमत के खिलाफ बोलने के लिए अंग्रेजी सरकार ने 24 मई 1939 को डा0 लोहिया को कलकत्ता में गिरफ्तार किया। लोहिया ने अदालत में अपनी पैरवी खुद की, कई पेशियों के पश्चात् 14 अगस्त 1939 (81 दिन बाद) को उन्हें रिहा किया गया। आईसीएस रणजीत गुप्ता ने लोहिया को रिहा करते हुए कहा कि यदि डा0 लोहिया वकील होते तो बहुत कामयाब होते। लोहिया वकील तो थे ही, पीडि़त मानवता और वंचित समाज की वकालत के लिए उन्होंने सारा जीवन समर्पित कर दिया था। 9 सितम्बर 1939 को वायसराय लिनलिथगो से महात्मा गांधी की मुलाकात हुई, डा0 लोहिया ने इस मुलाकात की कटु आलोचना की। 11 मई 1940 को डा0 लोहिया ने संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के सुल्तानपुर में शोषण और गुलामी की बुनियाद पर खड़ी ब्रिटिश सरकार को चुनौती देते हुए देश के 11 प्रांतों में लोकप्रिय सरकारों की जगह गवर्नरी निरंकुशता की घोर भत्र्सना की। 1 जून को गाँधी जी के पत्र ‘‘हरिजन’’ में ‘‘सत्याग्रह तुरंत’’ लिखकर तत्काल सत्याग्रह कर स्वतंत्रता हेतु निर्णायक लड़ाई का सिंहनाद करने की अपील उन्होंने महात्मा गांधी व भारतीय जनता से की। लोहिया वाणी की प्रखरता व वाक्दिग्धता से ब्रिटानिया हुकूमत घबरा गई। सात जून 1940 को उन्हें इलाहाबाद के स्वराज भवन से गिरफ्तार किया गया। उन्हें सुल्तानपुर लाया गया क्योंकि गिरफ्तारी का कारण दोस्तपुर में दिया गया भाषण बताया गया था। उन्हें कचहरी से 4-5 मील फासले में एक निर्जन स्थान पर स्थित कोठरी में रखा गया था। पेशी के दौरान हथकड़ी और बेड़ी में इतनी दूर से पैदल लाया जाता। 1 जुलाई 1940 को 2 साल की सजा सुनाई गई। 12 अगस्त को बरेली जेल भेज दिया गया। पूरा देश तड़प उठा। बापू ने भी प्रतिकार किया, संयुक्त प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष पुरुषोत्तमदास टंडन मिलने जेल में आए, उन्होंने सरकार की बर्बरता देखी, डा0 लोहिया को दी जा रही यातनाओं का उल्लेख करते हुए उनकी आँख भर आई। मुम्बई में महात्मा गांधी ने गर्जना की कि ‘‘जब तक डा0 राममनोहर लोहिया जेल में हैं, तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता। उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालूम नहीं। उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया, जो कुछ किया उससे उनका सम्मान और अधिक बढ़ता है। इसी बीच 7 सितम्बर को जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला बेाल कर ब्रिटिश जंगी जहाजों पर कब्जा कर और सिंगापुर, मलाया, थाईलैण्ड, बर्मा तथा प्रशांत महासागर के कई द्वीपों को मुक्त करा दिया, इससे अंग्रेजी सरकार की अजेय छवि को धक्का लगा। 4 दिसम्बर 1941 को अचानक डा0 लोहिया को रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद लोहिया महात्मा गांधी के पास वर्धा आश्रम में एक सप्ताह रहे। डा0 लोहिया पर कांग्रेसियों ने महात्मा गांधी को बरगलाने का आरोप लगाया, उन्हें लगा कि राष्ट्रपिता पर लोहिया की भाषा व भाव का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। 29 जुलाई को डा0 साहब ने बापू से जल्दी लड़ाई छेड़ने का आग्रह किया, उन्होंने दस दिन रुकने का निर्देश दिया। बयालिस के आंदोलन की तैयारी में लोहिया जुट गए। उन्होंने बेदौल (मुजफ्फरपुर) में आयोजित एक सभा में डॉ0 लोहिया ने सोशलिस्टों को निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार रहने को कहा, उन्हांेने कहा कि जो गिरफ्तार होंगे, उन्हे निकम्मा समझा जायेगा। 7 अगस्त 1942 को ग्वालिया तालाब के मैदान से ‘‘भारत छोड़ो’’ प्रस्ताव रखा गया, महात्मा गाँधी ने तीन घंटे के भाषण में ‘‘करो या मरो’’ मंत्र दिया। 8 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हो गया। 9 अगस्त को सबेरे चार बजे महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के साथ ब्रिटानिया हुकूमत का दमन चक्र प्रारम्भ हुआ। सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो गए किंतु डा0 लोहिया का कोई अता-पता नहीं मिला। डा0 लोहिया, अच्युत पटवर्धन, सादिक अली, पुरुषोत्तम त्रिकमदास, मोहन लाल सक्सेना, सदाशिव महादेव जोशी, रामनंदन जोशी, साने गुरु जी, कमला देवी चट्टोपाध्याय, अरुणा आसफ अली, पूर्णिमा बनर्जी जैसे नेताओं ने केन्द्रीय संचालन मण्डल बनाया, इसकी सांगठनिक संरचना हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी जैसा ही थी। लंदन में भारत मंत्री मिस्टर एमरी के ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिए गए बयान ने आग में घी का काम किया। जिसमें उन्होंने कहा कि भारत की जनता आजादी के नाम पर रेल की पटरियां उखाड़ने, तार काटने, थानों और कचहरियों पर कब्जा करने का काम कर रही है। डा0 लोहिया के लेख और परचों की क्रांति की धार तेज होती चली गई। उनकी ‘‘जंगजू आगे बढ़ो’’ क्रांति की तैयारी करो’’ आजाद राज कैसे बने?, जैसी बुलेटिनों से क्रांतिकारियों और भूमिगत सत्याग्रहियों को दिशा-निर्देशन तथा प्रेरणा मिलती। ‘आजाद रेडियो’ से उनके भाषण प्रकाशित होते, उन्होंने ‘करेंगे या मरेंगे’ तथा ‘‘मैं आजाद हूँ’’ का उद्घोष किया। लोहिया के संकट से पुलिस निपट ही नहीं पा रही थी कि 8 नवम्बर 1941 को जयप्रकाश, सूरज नारायण सिंह, रामनंदन मिश्र जैसे समाजवादियों ने हजारीबाग जेल तोड़ दिया। माना जाता है कि एक अंग्रेजपरस्त व्यक्ति के रूप में कुछ समय लोहिया सेण्ट्रल एवेन्यू की एक 6 तल्ले की बिल्डिंग के तीसरी मंजिल पर रहते थे। मणिकतल्ला डाकखाने की लूट के प्रेरणास्रोत डाक्टर साहब ही थे। कुछ समय वे ‘बाँठियाजी’ के नाम का मारवाड़ी बनकर भी रहे। ‘करंेगे या मरेंगे’ नाम से भूमिगत पत्रक खूब वितरित होता था जिसके लेखक व प्रकाशक डा0 लोहिया थे। सरकार ने मोटा इनाम रखा किंतु वे पकड़ में न आए। नेपाल में जयप्रकाश जी अन्य साथियों के साथ अज्ञातवास पर थे, वहीं डा0 लोहिया भी पहुँच गए। वहाँ ये लोग पकड़े गए, हनुमाननगर थाने से ‘आजाद दस्ता’ के संग्रामियों ने धावा बोलकर छोड़वा लिया, खूब गोलियां चली, लोहिया को भी गोली लगते-लगते बची, उनका चश्मा टूट गया, उनकी स्थिति एक तरह अंधे जैसी हो गई। एक तंदुरुस्त साथी ने जयप्रकाश को कंधे पर उठा लिया, डा0 लोहिया कंधे पर बैठने को सैद्धांतिक विचलन बताते हुए लंगड़े पैर भागे। उनके पैर का चमड़ा उधड़ गया था, खून अनवरत बह रहा था, रात को वे लोग राघोपुर के ग्वाले के घर रुके। भटकते और अलख जगाते इम्फाल पहुँचे, वहाँ से सुभाष चन्द्र बोस से सम्पर्क का प्रयास किया किन्तु असफल रहे। जयप्रकाश जी को 18 सितम्बर 1943 को चलती रेल से गिरफ्तार पहले ही किया जा चुका था किन्तु लोहिया पकड़ में नहीं आए। वायसराय लिनलिथगो की गोपनीय रिपोर्टों से पता चलता है कि ब्रिटानिया हुकूमत लोहिया व समाजवादियों को सबसे बड़ा शत्रु समझती थी। लगभग 22 महीने की फरारी के बाद 20 मई 1944 को वे बाबुलनाथ रोड (मुम्बई) स्थित एक मकान से योजना बनाते हुए पकड़े गए। लोहिया की गिरफ्तारी की खबरें न केवल भारत अपितु इंग्लैंड के अखबारों में भी प्राथमिकता से छपीं। लंदन स्थित भारत-सचिव ने लोहिया की गिरफ्तारी को राहत भरी बड़ी खबर बताया। लोहिया को लाहौर किले में बनाए गए कैदखाने में रखा गया। लाहौर किले में लोहिया को असहनीय यातना दी गई। वस्त्रहीन कर बर्फ की सिल्लियों पर लेटाया गया, सोने नहीं दिया जाता, एक अंधेरी कोठरी में चैबीसो घण्टे बंद रखा जाता। आजाद पंक्षी जैसी जिन्दगी जीने वाले डा0 लोहिया के लिए यह कैद नर्क से भी वीभत्स थी पर उन्हें न रुकना था न झुकना। जंजीर से जानवरों की तरह बाँधकर रखा जाता। भद्दी-भद्दी गालियां दी जाती। उन्हें शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना जितनी दी जा सकती थी दी गई। गंदा पानी पिलाया जाता। उनका दाँत और दिल दोनों खराब हो गया। सांस फूलने लगी। उन्हें छह महीने तक पता ही नहीं चल पाया कि बगल की कोठरी में जयप्रकाश जी बंद हैं। मुम्बई के बैरिस्टर पारडीवाल लोहिया व जयप्रकाश जी से हैबियस कार्पस की दरख्वास्त पर हस्ताक्षर लेकर लाहौर से निकले ही थे कि गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में समाजवादी नेता पूर्णिमा बनर्जी ने जीवनलाल कपूर के माध्यम से हैबियस कार्पस दाखिल किया। इन सभी कवायदों से लोहिया को पढ़ने-लिखने की सुविधा और थोड़ी राहत मिली। लोहिया ने ब्रिटिश लेबर पार्टी के अध्यक्ष प्रोफेसर जे0 हेराल्ड लास्की को पत्र लिख कर यहां दी जा रही यातनाओं से अवगत कराया। हलचल होना स्वाभाविक था। लोहिया को लाहौर से आगरा जेल स्थानांतरित किया गया। लोहिया से मिलने यूनाईटेड किंगडम के सीनेटर रेजिनाल्ड सोरेनसेन मिलने आए। 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। सभी राजनीतिक कैदी छोड़ दिए गए। जून 1945 तक केवल लोहिया व जयप्रकाश ही जेल में रह गए थे। इंग्लैण्ड में लेबर पार्टी की सरकार बनी। एटली प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस व अंग्रेजी सरकार में संवाद प्रारम्भ हुआ। बापू ने लोहिया व जयप्रकाश को रिहा करने की अपील की। ब्रिटानिया हुकूमत लोहिया को छोड़ने के सख्त खिलाफ थी। अन्ततोगत्वा भारी दबाव और जन-इच्छा को देखते हुए लोहिया, जयप्रकाश को 11 अप्रैल 1946 को रिहा किया गया। इसी बीच लोहिया के पिता का देहांत हो चुका था, वे अपने जन्मदाता का अंतिम दर्शन तक न कर सके। जालिम सरकार ने उन्हें पिता के महाप्रयाण में शामिल होने की भी अनुमति नहीं दी थी। पूरे देश में स्वागत समारोहों की बाढ़ आ गई। डा0 लोहिया को आराम करने की सख्त हिदायत दी गई। वे अपने साथी जूलियो मैनेजि़स से मिलने गोवा में आसोलना पहुँचे। गोवा में पुर्तगाल का उपनिवेश था, वहाँ डा0 लोहिया से पहले लोहिया की प्रसिद्धि पहुँच चुकी थी, लोग बयालिस के नायक को देखने आते। गोवा में शादी का कार्ड तक बिना अनुमति के छपवाने की इजाजत नहीं थी। लोहिया ये अन्याय कैसे बरदाश्त करते। उन्होंने पुरुषोत्तम काकोड़कर समेत सभी गोवावासियों को लड़ने की प्रेरणा दी। 15 जून को पंजिम में सभा हुई और तय हुआ कि 18 जून 1946 मडगाँव में विशाल सभा होगी। 18 जून को मड़गाँव में बड़ी रैली हुई, वहाँ के प्रशासक मिरांड़ा ने लोहिया पर रिवाल्वर तान दिया, लोहिया की डाँट से मिरांड़ा का चेहरा उतर गया। गोवा में इतने बड़े अफसर के अपने दृष्कृत्यों के लिए डाँट खाने और अपमानित होने की यह पहली घटना थी। लोहिया व मैजैनिस गिरफ्तार कर लिए गए, उनका लिखित भाषण बांटा गया। जिस थाने में लोहिया को रखा गया उसे भारी भीड़ ने घेर लिया, अन्त में लोहिया ने बाहर आकर संबोधित किया तब भीड़ शांत हुई। गोवा की जनता ने पंजिम नगर पालिका भवन के निकट के चैराहे का नाम लोहिया चैक रख दिया। लोहिया को पुर्तगाली सरकार को रिहा करना पड़ा, वे तीन महीने का नोटिस देकर बम्बई लौट आए। उनके संघर्ष के फलस्वरूप 21 मई 1946 को पहली बार गोवावासियों को सभा करने की अनुमति मिली। 29 सितम्बर को लोहिया दोबारा मड़गाँव (गोवा) आए, उन्हें कोलेम में गिरफ्तार कर आग्वाद के किले में कैद रखा गया। बाद में 8 अक्टूबर 1946 को छोड़ा गया, गांधी ने लोहिया की रिहाई के लिए विशेष प्रयास किया। लोहिया गोवा में आजादी की मशाल जला चुके थे। 26-27-28 फरवरी 1947 को नौ वर्ष बाद कानपुर में समाजवादियों का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में ‘कांग्रेस’ शब्द कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से हटा दिया। फरवरी 1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने जून 1947 में भारत को आजाद करने की घोषणा की। लार्ड वेवेल की जगह लार्ड माउण्टबेटेन को मार्च में आखिरी वायसराय के रूप में भेजा। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ। आजादी के साथ विभाजन का दंश भी मिला। लोहिया ने न केवल गोवा अपितु नेपाल की आजादी के लिए भी संघर्ष के प्रेरणास्रोत व उत्प्रेरक का कार्य किया। 25 अपै्रल 1947 को नेपाली कांग्रेस की सभा साकिया पोकरी (दार्जिलिंग) के निकट होनी थी। इस सभा में डा0 लोहिया को बोलना था किन्तु उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने न केवल एशिया अपितु अमरीका में जाकर रंगभेद के खिलाफ सत्याग्रह किया और काले लोगों से नस्लवादी गुलामी से मुक्ति का संदेश दिया। डा0 लोहिया का पूरा जीवन व दर्शन मानवीय शोषण से मुक्ति का संदेश देता है। वे गुलामी के सभी ध्वंसावशेष और प्रतीकों को मिटाना चाहते थे। उनका प्रत्येक कार्यक्रम और अवधारणा डा0 लोहिया के व्यापक सोच को प्रतिबिम्बित करता था। अभी भी स्वतंत्रता तथा समाजवाद अपने वास्तविक लक्ष्य से दूर है। आज लोहिया नहीं किन्तु उनके विचारों की रोशनी अंधेरे में रास्ता दिखाने के लिए उपलब्ध है। एक अकेले लोहिया ने सिद्ध किया ‘‘एकश्चंद्र तमो हन्ति न च सहस्र तारकः। लोहिया कालजयी थे, जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा उनकी स्वीकारिता व प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी। देश स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका के लिए सदैव कृतज्ञ रहेगा, पूरी दुनिया उनकी वैचारिक थाती के आगे नतमस्तक है और रहेगी।

मुद्दतों के बाद होते हैं पैदा वो लोग, मिटते नहीं हैं दहर से जिनके निशां कभी।

लोहिया जैसी विभूतियां कभी-कभी धरती पर अवतरित होती हैं और युगधर्म तथा कत्र्तव्य का पाठ पढ़ाते हुए इतिहास को गौरवशाली बनाती हैं।  
अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...