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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
प्रो0 लास्की को लोहिया का खत एक संग्रहणीय राजनीतिक दस्तावेज
-डॉ लोहिया
(ब्रिटिश लेबर पार्टी के अध्यक्ष हेराल्ड लास्की की गणना दुनिया के श्रेष्ठ राजनीतिकों, चिंतकों, विद्वानों और फेबियन समाजवाद के व्याख्याताओं में होती है। वेयर सोशलिज्म स्टैण्ड टुडे (Where Socialism Stand Today) तथा सोशलिस्ट लैंडमार्क (Socialist Landmark) उनके द्वारा लिखी पुस्तकंे हैं जिन्हें समाजवाद की गीता की संज्ञा दी जाती है। डा0 लोहिया का यह पत्र एक दस्तावेज है जो समाजवादी वैचारिकी की अनुपम धरोहर है। उल्लेखनीय है कि लास्की ने भारत के आजादी की पैरवी की थी।

प्रिय प्रो. लास्की,

अभी मेरे देश ने आपकी संसद के प्रश्नकाल के बारे में जाना है। मैं आपको बताने जा रहा हूँ जिसके बारे में आप नहीं जानते। भारत के अंडर सेक्रेटरी आर्थर हैंडरसन ने कहा कि मैंने लाहौर किले की नजरबंदी के सिलसिले में कुछ बेबुनियाद आक्षेप लगाए हैं। मुझे संदेह है कि अंडर सेक्रेटरी को यह भी पता है कि मेरे क्या आक्षेप थे। हैरत की बात तो यह है कि इस तरह ब्रिटिश सरकार ने मेरे देश को उन आक्षेपों को खारिज करने के लिए कहा है जबकि मैंने इसके प्रकाशन को दबाने के भरसक प्रयास किए। छुटपुट बातों के अलावा मेरे देश को यह पता नहीं है कि मैंने सरकार पर क्या आक्षेप लगाए हैं। जब मैं लाहौर किले में था और मुझे हाईकोर्ट को लिखने की इजाजत मिली मैंने दिसम्बर 1944 को हैवियस कार्पस की अर्जी दी और जनवरी 1945 में उसमें कुछ और ब्यौरे। जब पेशी हुई तब जज ने उसे गोपनीय रखा। सरकार ने और अधिक एहतियात बरती और एक अध्यादेश के तहत समाचार पत्रों में इस हैवियस कार्पस मामले के प्रकाशन पर रोक लगा दी। पेशी में जज ने मेरी अर्जी के तथ्यों पर गुणात्मक आधार पर सुनवाई करने का विचार व्यक्त किया और हलफ लेकर मेरी जांच की गई। और जब वह मेरे आक्षेप की जाँच कर रहे थे तब न्यायाधीश ने सरकार की यह बात मान ली कि मेरा तबादला दूसरे प्रांत में हो रहा है और इस तरह कार्रवाई खत्म कर दी गई। मेरी अर्जी को खारिज करते हुए न्यायाधीश ने भी महसूस किया कि केन्द्रीय सरकार द्वारा मुझे नजरबंद करने का एकमात्र उद्देश्य यंत्रणा देना नहीं था। मुझे खेद है कि मैं आपको इस विचित्र आदेश के सही सही शब्द जुटाने में असमर्थ हूँ। मैं बता दूँ कि मुझे मई 1944 में बम्बई में गिरफ्तार किया गया था और वहाँ एक महीने तक रखा गया। यदि सरकार की मंशा शांति कायम रखने की थी तो वह मुझे बम्बई की जेल में रखकर या किसी अन्य जगह मेरे प्रांत उत्तर प्रदेश में ले जाकर पूरी की जा सकती थी। लाहौर किले में बंदियों के साथ पंजाब सरकार के दुव्र्यवहार को लेकर देश में खासा मजाक बनी है। जहाँ यह जिम्मेदारी केन्द्रीय सरकार पर डाल दी गई। अब यह जिम्मेदारी ब्रिटिश अंडर सेक्रेटरी ने पंजाब सरकार पर पलट कर डाल दी है। जहाँ तक मेरा ताल्लुक है, भारत सरकार अपराधी है। मैं कानूनन और तथ्यतः उसका कैदी हूँ और मेरे साथ दुव्र्यवहार के आदेश उन्हीं के द्वारा जारी हुए हैं और पंजाब सरकार इस अपराध में सहयोगी है। आपके देश में कोई सरकार इस तरह न्याय में दखल नहीं दे सकती और न इस तरह के अपराधिक आक्षेप से अपने दायित्व से अलग हो सकती है। इस जेल में मेरे तबादले के बाद मैंने फेडरल कोर्ट की अर्जी दी। उस पर भारत के मुख्य न्यायाधीश ने मुझे बताया कि यह उनके क्षेत्राधिकार से बाहर है। कई माह के दौरान के बाद मैं अपने वकील मदनलाल पित्ती से संपर्क करने में सफल हुआ हूँ। लेकिन मुझे नहीं मालूम कि उन्हें कब मेरे लाहौर हाईकोर्ट में दी गई अर्जियों की नकलें मिल सकेंगी। लाहौर से आगरा स्थानान्तरण करते समय वह मुझसे छीन ली गई थीं। मैं लाहौर किले के अपने लम्बे अनुभवों का ब्यौरा नहीं देना चाहता। यदि आपका संसदीय दल या उसका कोई सदस्य सचमुच इसमें दिलचस्पी रखता हो तो वह आसानी से इन दोनों अर्जियों को लाहौर हाईकोर्ट से और तीसरी को फेडरल कोर्ट से अदालत के दस्तावेज के रूप में माँग सकता है। मैं यह भी जोड़ दूँ कि यह अर्जी जो कुछ मेरे ऊपर बीता है उसका कम-बयानी ही है। मैंने अश्लीलताओं का जिक्र नहीं किया है। दूसरे मैंने कोई नाटकीय वक्तव्य नहीं दिया जो कि उबाऊ क्रूरता को बताने में प्रयोग आता। मैंने आशा की थी कि अदालत सुनवाई में वह अधिक उजागर होगा। मैं यहां सिर्फ यही संकेत करूँगा कि मुझे अनेक प्रकार से चार महीने तक सताया गया और रातों जगाए रखा गया जिनमें कि सबसे लम्बी अवधि 10 दिन थी, और जब मैंने पुलिस के इन प्रयासों का प्रतिरोध किया तब उन्होंने मेरे हथकड़ी बँधे हाथों को फर्श पर चारों तरफ घुमाया। इसे सहने में मुझे कुछ वक्त लगा जिससे इस सबक को मैं कभी नहीं भूलूंगा। कोई भी दर्द वास्तव में असहनीय है। यह अतीत में असह्य था पर तब मनुष्य बेहोश या मृत था और या यह दूसरे क्षण असहाय कल्पित स्थिति लगती थी। यह सही है कि मेरी पिटाई नहीं की गई। मेरे पैर के नाखूनों में सुई नहीं चुभोई गई। मैं तुलना करना नहीं चाहता। एक यूरोपीय जिसमें मानव शरीर के प्रति अधिक संवेदनशीलता है यदि वह आतंक से सुन्न नहीं हो गया है, व समझ सकता है कि मेरे ऊपर क्या गुजरी। पीटना और तलुओं पर चोट करते हुए मृत्यु निकट तक पहुँचा देना और या मनुष्य को यंत्रणा देना यह उससे भी बुरी बात हुई। मैं आपको एक ही मिसाल दूँगा जो मुझे ध्यान में आ रही है। बम्बई प्रांत की एक पुलिस चैकी में एक आदमी ने जहर खा लिया। उत्तर प्रदेश की एक जेल में एक आदमी कुएँ में कूद पड़ा और गिरफ्तारी के बाद जो लोग मारने पीटने या दुव्र्यवहार से मरे उनकी कोई गिनती नहीं। सिर्फ उड़ीसा की एक जेल में ही जो 300 में एक है, ऐसे मरने वालों की संख्या 29 या 39 थी मुझे इस समय ठीक याद नहीं आ रहा है। पिछले साढ़े तीन सालों में मेरे देश ने बहुत कुछ सहा है। हजारों की संख्या में लोग गोली से मारे गए। कुछ को चलते वाहनों में निशाना साधने के लिए या आतंक पैदा करने के लिए स्त्रियों को पेड़ों पर टांग दिया गया और बहशियाना तरीके से मकानों को तोड़ा व गिराया गया। किसी एक सीमित क्षेत्र में नहीं, बल्कि समग्र व्यापक क्षेत्र में। यह हैरत की बात नहीं है कि एकबार देश पर आतंक और प्रतिशोध द्वारा दोबारा कब्जा किया गया। अगस्त क्रांति से बड़ी कोई घटना आधुनिक इतिहास में नहीं हुई है। इसी से यह स्पष्ट है कि 30 से 40 लाख व्यक्ति सरकार द्वारा सृजित अकाल में मारे गए। 15 साल पहले भी दूसरी तरह की मारपीट होती थी। मेरे पिता जो दो सप्ताह पहले मारे गए, उन्हें पीट-पीट कर बेहोश कर दिया गया जबकि वे दर्शना के नमक डिपो पर शांतिपूर्वक धरना दे रहे थे। मुझे इस बात का अफसोस रहा कि हम लोग ज्यादा समय तक साथ नहीं बिता सके। यह अच्छा ही रहा कि वह बारंबार की गिरफ्तारी से अपने देश में मुक्ति पा गए और राष्ट्र के कष्ट की यंत्रणा के भाव से मुक्ति पा गए। मैंने आपको अपने अनुभव के एक छोटे अंश के रूप में राष्ट्र की तस्वीर दी है ब्रिटिश श्रम आंदोलन अन्य समाजवादी आंदोलनों की तरह गलतियाँ कर रहा है क्योंकि वह लोकतंत्र या फासिस्टवाद या अपने देश के राजनैतिक रूप पर विदेशी शासन को माप रहा है या आँक रहा है। यदि पूर्वाग्रह छोड़ दिया जाए तो हमारे देश की ब्रिटिश राज्य व्यवस्था अन्य किसी व्यवस्था से बदतर पाई जाएगी या थोड़ी बेहतर। यह बहुत कुछ तथ्यों तथा सूचनाओं पर निर्भर करेगा। कोई इस बात से इंकार नहीं करेगा कि हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज एक तरुण जालिम की तरह अत्यन्त क्रूर रहा और जैसे उसकी उमर बढ़ती जा रही है एक राक्षस सा बनता जा रहा है। मध्यम अवधि की अपेक्षतया व्यवस्थित शासन अब याद नहीं आता। मैं नहीं कह सकता कि इस राक्षस की क्रूरताएँ खत्म या कम करना संभव है लेकिन यह मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश श्रम आंदोलन भी कोई ऐसा प्रयास नहीं करेगा, अगर वह विदेशी शासन को खूंरेज तरुण और क्रूतर पतन के सिद्धांतों से परिभाषित करे। और या उस मध्यम अवधि को ध्यान में रखे जो मेरे देश में समाप्त हो चुकी है। इस सबके बावजूद, अंडर सेक्रेटरी ने कुछ झूठ कहने का साहस किया हैं सब सरकारें, जैसा कि सब जानते है, उच्च नीति के नाम पर झूठ बोली है। पर जब एक सरकार व्यक्तियों के और मामूली स्तर पर झूठ बोलती है तो वह पूर्णतः भ्रष्ट है। क्या ब्रिटिश संसद की लेबर पार्टी में एक भी ऐसा सदस्य नहीं है जो इस सच को प्रकट कर सके। क्या यह कहा जाए कि इन सब अत्याचारों को करने वाले ब्रिटिश नौकरी करने वाले अधिकांश मेरे देशवासी ही हैं। मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि मेरे देश में पर्याप्त अधिक भ्रष्टता नहीं है, लेकिन अंगे्रज सोचता है कि जब तक वह इसका इस्तेमाल न करें, वह यहाँ नहीं रह सकता। मुझे न छोड़ना चाहते हुए अंडर सेक्रेटरी ने यह भी कहा कि सरकार मुझ पर मुकदमा चालू करने पर विचार कर रही है। मैं युद्धकाल में दो साल की जेल के बाद डेढ़ साल से अधिक नजरबंदी में हूँ। अगर अभी तक भी सरकार यह निश्चय नहीं कर सकती है तो शायद यह प्रशासन अनंतकाल तक चलता रहेगा। बम्बई की जेल में एक तरुण युवती ऊषा मेहता ने जो इस प्रांत में शायद अकेली राजनैतिक बंदी है। वह स्वाधीन रेडियो चलाने के कारण चार साल से बंद है। मुझे उसकी सजा पर झगड़ा नहीं। यदि वह असाधारण प्रतिभासंपन्न और साहसी स्त्री स्पेनी या रूसी होती तो आपके देशवासी एक नायिका के रूप में इसका गुणगान करते। वह एक साल और कई महीनों तक हवालात में रखी गयी और अगर यह भूल न होती, वह अभी तक अपनी सजा पूरी कर लेती। मैं यह भी बता दूँ कि उसका और उसके साथियों का मुकदमा अखबारों में छापना वर्जित था। आठ से दस हजार राजनैतिक बंदी जिनमें से काफी अधिक सामान्य अपराधियों की तरह वर्गीकृत है, वह अपनी सजा या नजरबंदी में किसी न किसी भूल के कारण बंद हैं। कुछ दिन पहले आजन्म कारावास भोग रहे दस व्यक्तियों को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने छोड़ा। उन्होंने यह माना कि उन्हें झूठी गवाही पर यह दंड मिला था। सोशलिस्ट पार्टी के सचिव, जय प्रकाश नारायण दो साल से ज्यादा से नजरबंद है। इससे पहले वह लगभग तीन साल की सजा और नजरबंदी भुगत चुके हैं और भारत सरकार कहती है कि उनकी गिरफ्तारी के समय से ही उन पर मुकदमा चलाने का विचार कर रही है। वह उन्हें जेल में बंद रखे, इस प्रश्न पर विचार ही करती रहेगी। मैं नहीं जानता की यदि कोई मि0 ल्योपाल्ड एमरी से मेरी नजरबंदी के बारे में यह सवाल पूछता और वह मुझे जेल में ही रखना चाहते, तब वह क्या जवाब देते। मैं सोचता हूँ वह अपहर्ता की निरंकुश शक्ति की दुहाई देकर कहते कि मुझे वह देश के कानून के तहत बंद किए हुए हैं जो भी वह है वह कम से कम लेबर पार्टी के अंडर सेक्रेटरी द्वारा एक कुकृत्य को छुपाने से बेहतर होता। सरकार हम पर मुकदमा चलाने से डरती है और वह बार-बार डरती रहेगी। हमारा मुकदमा उन पर ही मुकदमा हो जाएगा। भारतीय-रूसियों के अलावा शायद कोई भी ऐसा नहीं है जो यह सोचे कि हमने कभी ध्रुव राष्ट्रों के लिए काम किया है या उसका कुछ ऐसा अप्रत्याशित परिणाम हुआ है। जयप्रकाश नारायण तो वास्तव में चाहते थे कि वह देश को स्वाधीन प्रेस द्वारा ब्रिटिश सोशलिस्ट आंदोलन के लिए एक अपील प्रसारित करें, पर तब मैंने महसूस किया, तब इस आंदोलन का कोई योग्य मुखिया न था और न ही कोई ऐसा अनुकूल तत्व जिसे ऐसी अपील भेजी जा सकती। हमारे ऊपर यह आरोप लगाया जाता है कि हम हिंसा द्वारा अपना लक्ष्य पूरा करना चाहते थे। यह एक अस्पष्ट आरोप है जिसके लिए कानून में कोई जगह नहीं है, न ही किसी युक्तिसंगत राजनैतिक चर्चा में। राजनैतिक व्यवहार के तरीके के रूप में हिंसा और अहिंसा के बीच विभाजक रेखा खींचना मूलतः भारतीय शुरूआत है और स्वीकृत सांविधानिक और असांविधानिक साधनों के स्वीकृत विरोध से भिन्न है। इसलिए अभी उसकी स्वीकृति के लिए रुकना होगा, जब तक कि वह अपनी राजनीति से एक राज्य स्थापित करने में समर्थ नहीं होती। ऐसी घटना राज्य की अवधारणा और उसके दायित्वों और आमूलचूल को भी बदल देगी। तब तक ब्रिटिश सरकार को और किसी और को यह कहने का अधिकार नहीं है कि वह हिंसा के प्रयोग का आरोप हम पर लगाएँ क्यांेंकि शासित दुनिया में हिंसा का अधिकार मनुष्य के सुंदरतम प्रयासों से जुड़ा हुआ है। यदि मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली या केंटरबरी के आर्कविशप का अनुसरण करना होता, तब मैं इस हिंसा को पवित्र अधिकार कहता। बाकी के लिए भारतीय दंड संहिता पर्याप्त कठोर है और अन्य प्रचलित संहिताओं से भी। इसमें राजनैतिक हत्याओं और उससे भी तनिक भी संबद्ध अपराध या राजद्रोह के लिए था, मात्र हथियार रखने के लिए क्रूर प्रावधान है। मुझ पर इनमें से किसी भी जुर्म के लिए मुकदमा नहीं चलाया गया है, न ही सैकड़ों उन लोगों पर जो महीनों युद्धकाल में बंद रहे और आज भी कई महीनों बाद जेलों में बंद है जबकि आपके देश में अंतिम फासिस्ट को रिहा किया जा चुका है। सरकार की इस युक्ति को तनिक सा भी समर्थन देकर कि जेल में बंद हर एक व्यक्ति समाजवादी और हिंसा का पैरोकार है, ब्रिटिश सोशलिस्ट जानबूझकर इस देश में ब्रिटिश फासिस्टों को भारतीय सोशलिस्टों पर अपना गैर कानूनी गुस्सा उतारने का अवसर दे रहा है। अगर आपके संसदीय दल के मि0 स्टीफन डेविस ने एक अंडर सेक्रेटरी से प्रश्न करना उचित समझा, तो उनके पास कम से कम जरूरी सूचनाएं तो होनी चाहिए थी। जिनसे वह पूरक प्रश्नों द्वारा यह बता सकते कि उत्तर कितना अनुचित और भ्रांत था। जल्दी में पूछे गए या एक अप्रिय कर्तव्य के रूप में या भ्रम पैदा करने के लिए पूछे प्रश्नांे से तो प्रश्न नहीं पूछना बेहतर है। फिलहाल मुझे रिहा होने की कोई जल्दी या ख्वाहिश नहीं है। ब्रिटिश सरकार जब तक कि देश में उसका शासन है, मुझे कैदखाने में रख सकती है। लेकिन यह सच्चाई है कि आपके संसदीय दल में एक आदमी भी ऐसा नहीं था जो तथ्यों के साथ अंडर सेक्रेटरी को बता सकता कि वह झूठ बोल रहा है और उसने अभी तक और न कभी वह मुकदमा चलाएगा और उसने आदतन वह परदा डाला है जिससे मेरी नजरबंदी मूर्खों की नजर में अधिक रूचिकर लगे। गुलाम देश से शासक देश को लिखना बेअसर और थकाने वाला है, पर मैं आशा करता हूँ कि आप अपने से यह पूछेंगे कि मैंने यह पत्र आपके संसदीय दल को लिखने के बजाए आपको ही क्यों लिखा।

अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...