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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
लोहिया के व्यक्तित्व का वैविध्य
-सच्चिदानंद सिन्हा

(डा0 लोहिया की वैचारिक पत्रिका ‘‘मैनकांइड’ के संपादक मंडल और भारतीय संविधान सभा के सदस्य सच्चिदानन्द सिन्हा 1893 में इंग्लैंड से वकालत कर लौटने के बाद पूरी तरह से समाजवादी आंदोलन व सत्याग्रह से जुट गए। उन्होंने राजनीति की मनीषी परम्परा को आगे बढ़ाया। प्रस्तुत है डा0 लोहिया के व्यक्तित्व को स्मरित करता हुआ उनका एक संस्मरण)

किसी समकालीन विचारक-नेता के संबंध में कोई निश्चित राय बनाना काफी कठिन है, विशेषकर तब जब विचारक-नेता का प्रभाव ऐसी राय देने वाले पर विभिन्न संदर्भों में पड़ा हो। शायद लम्बे अंतराल के बाद जब विचारक नेता अपने विचारों से एकाकार हो गुट बन जाए- जैसा महात्मा गांधी के साथ हुआ है- यह कहना आसान हो जाता है। हालांकि गांधी जी के संबंध में अभी भी यदा-कदा कुछ बातें आ जाती हैं जो उनके व्यक्तित्व के कुछ आयामों पर पुनर्विचार की मांग करने लगती हैं। लेकिन जहाँ महात्मा गंाधी शुरू से ही कुछ अचल मर्यादाओं से बंधे रहे और उनके व्यवहार के पीछे एक कठोर अनुशासन का व्रत रहा, वहीं लोहिया स्थापित परंपराओं और वर्जनाओं पर बार-बार उंगली उठाते। स्वयं अपने जीवन को बहुत अनुशासित करने की कोशिश नहीं की। अतः समग्रता में उनका प्रभाव कुछ वैसा ही है जैसा किसी ऐसे भित्तिचित्र या तैलचित्र का, जिसकी बनावट में पारदर्शी रंगों की कई परतें एक के ऊपर एक चढ़ी होती हैं। इससे चित्र के अंतिम प्रभाव के पीछे अनेक रंगों की झांकियाँ बनी रहती हंै। एक लेखक के लिए लोहिया भी अलग-अलग ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य में अलग-अलग तरह से सामने आये और उनकी विविध छवियाँ सदा साथ-साथ बनी रहीं। डा0 लोहिया से सीधा संपर्क होने से बारह साल पहले मैं वीर-पूजा भाव से उनके प्रभाव में आ गया था। तब मैं एक स्कूली छात्र था और 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में उनके नाम से परिचित हुआ। जब सभी कांगे्रसी नेता गिरफ्तार हो गये थे तो लोहिया, अरुणा आसफअली और अच्युत पटवर्धन भूमिगत हो आंदोलन को चलाने के प्रयास में लगे रहे। बाद में जयप्रकाश नारायण हजारीबाग जेल की दीवार लाँघ बाहर आ गये और इस प्रयास में शामिल हो गये। धीरे-धीरे चारों ओर विशेषकर बिहार और महाराष्ट्र में आजादी के लिए संघर्षशील लोगों का एक व्यापक भूमिगत तानाबाना तैयार हो गया था जिसके साथ लोहिया, जयप्रकाश, अरुणा आसफअली और अच्युत पटवर्धन के नाम विशेष तौर से जुड़ गये थे और हमारे जैसे किशोर उनके प्रभामंडल में आ गये थे। लोहिया जो कुछ भी करते थे उसके पीछे तर्क गढ़ने का रुझान उस समय ही देखा जा सकता था। 1942 के आंदोलन में बड़े पैमाने पर रेल की पटरियाँ उखाड़ दी गयी थीं और कुछ रेलखण्डों पर तो हफ़्तों रेल यातायात बंद रहा। मित्र राष्ट्रों के खेमें में, जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था, इसे युद्ध प्रयासों के खिलाफ धुरी राष्ट्रों (जर्मनी, इटली, जापान) के समर्थन में ‘सैबोटाज़’ कह कर बदनाम करने की कोशिश हो रही थी। उन्हीं दिनों किसी भूमिगत प्रकाशन में डा0 लोहिया का एक आलेख ‘नाॅट सेबोटाज़ ब्ट डिसलोकेशन’ देखने को मिला। पूरा लेख क्या था, याद नहीं और सब कुछ समझने की उस समय क्षमता भी नहीं रही होगी। लेकिन यह जरूर लगता है कि इसका तर्क यह होगा कि हम हमारी जमीन पर खुद तय करेंगे कि युद्ध प्रयासों के लिए रेल व्यवस्था का आयोग हो या नहीं। इसके बाद जब, मूलतः अगस्त आंदोलन के प्रभाव में आये लोगों को लेकर आजादी के बाद, कांगे्रस के बाहर सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो इस पर सर्वाधिक प्रभाव जे0पी0 और लोहिया का था। जब 1953 में सोशलिस्ट पार्टी का विलय कृपलानी जो कि किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ हुआ और प्रसोपा बनी तो मैं इससे बाहर ही रहा। लोहिया इस पार्टी के महामंत्री बने। लेकिन 1955 में गंभीर आंतरिक विरोधों के कारण डा0 लोहिया इससे बाहर आ गये और अलग से सोशलिस्ट पार्टी बनाने के प्रयास में लग गये। बिहार के सोशलिस्टों ने सोशलिस्ट पार्टी की ‘आर्गेनाइजिंग कमेटी’ बनाकर बिहार में पार्टी का संगठन खड़ा करने का प्रयास शुरू कर दिया। इस क्रम में पटना से निकलने वाली हिन्द किसान पंचायत की पत्रिका ‘जन क्रंाति’ भी इस मुहिम में जुट गयी। इसका संपादन बी0पी0 सिन्हा (बार-एट-लाॅ) कर रहे थे। वह कभी आचार्य नरेन्द्र देव के साथ ‘संघर्ष’ के संपादन से जुड़े थे और बाद में पटना से निकलने वाली सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका ‘जनता’ के बेनीपुरी जी के साथ सह-संपादक थे। मैं भी इसके संपादन में सहयोग कर रहा था। प्रस्तावित सोशलिस्ट पार्टी के गठन के सिलसिले में ही डा0 लोहिया का बिहार दौरा आयोजित किया गया था और पटना आने पर वे बी0पी0 सिन्हा के साथ ही ठहरे थे। वहीं उनसे पहले पहल साक्षात्कार का मौका मिला। हालांकि उनसे बहुत बात करने का अवसर नहीं मिला लेकिन मुझे उनके विचारों में एक खुलेपन का एहसास हुआ और कार्यकर्ताओं से दूरी बनाये रखने का रुझान नहीं दिखा जो प्रायः अपने देश के नेताओं में होता है। 1955 के अंत में लोहिया ने हैदराबाद में अपने समर्थकों के सम्मेलन में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। वे पार्टी के अध्यक्ष बनाये गये। इसी समय उन्होंने अंग्रेजी पत्रिका ‘मैनकाइन्ड’ के प्रकाशन की योजना बनायी। मैंने इसके लिए एक लेख भेजा था। लेख देखने के बाद डा0 लोहिया ने ‘मैनकाइन्ड’ के संपादक में योगदान के लिए मुझे हैदराबाद बुला लिया। इसी के बाद मुझे उन्हें ज्यादा नजदीक से देखने का मौका मिला। संयोगवश डा0 लोहिया की जिन्दगी में यह सर्वाधिक तनाव का दौर था और इसमें उनकी छिपी हुई विलक्षण सांगठनिक ऊर्जा सामने आयी। सोशलिस्ट आंदोलन में सांगठनिक का ऐसा स्फोट भाारत में इसके पहले नहीं देखा गया था। ‘मैनकाइन्ड’ के प्रकाशन के अलावा एक साथ कई पुस्तिकाओं का प्रकाशन हुआ-जैसे बढ़ती कीमतों पर, नागा प्रश्न पर, उसी समय बिहार में आरंभ सिविल नाफरमानी पर, जिसमें लगभग छः हजार कार्यकर्ता जेल गये। पार्टी का एक साप्ताहिक ‘न्यूज फीचर’ साइक्लोस्टाइल कर निकलता था, जिसे अखबारों और विभिन्न पार्टी इकाइयों को भेजा जाता था। इन सभी कार्यों की निगरानी के अलावा देश भर में दौरोें के लिए, भ्रमण करना और फिर हर राज्य के साथ कार्यालय का जीवन संबंध कायम रखना यह सब लोहिया कर पा रहे थे। शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्रों की दादागीरी खत्म करने के पक्ष में एवं राष्ट्रों के बीच की एक तरह की जाति व्यवस्था के खिलाफ लोहिया सदा मुखर थे। इसी समय मिस्र ने नासिर के नेतृत्व में स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण किया। ब्रिटेन ने इस पर युद्ध शुरू कर दिया। हैदराबाद में लोहिया ने नासेर के समर्थन में एक बड़े प्रदर्शन का नेतृत्व कर राज्यपाल के यहाँ ज्ञापन देकर भारत सरकार से मिस्र के समर्थन की मांग की।

किसी समकालीन विचारक-नेता के संबंध में कोई निश्चित राय बनाना काफी कठिन है, विशेषकर तब जब विचारक-नेता का प्रभाव ऐसी राय देने वाले पर विभिन्न संदर्भों में पड़ा हो। शायद लम्बे अंतराल के बाद जब विचारक नेता अपने विचारों से एकाकार हो गुट बन जाए- जैसा महात्मा गांधी के साथ हुआ है- यह कहना आसान हो जाता है। हालांकि गांधी जी के संबंध में अभी भी यदा-कदा कुछ बातें आ जाती हैं जो उनके व्यक्तित्व के कुछ आयामों पर पुनर्विचार की मांग करने लगती हैं। लेकिन जहाँ महात्मा गंाधी शुरू से ही कुछ अचल मर्यादाओं से बंधे रहे और उनके व्यवहार के पीछे एक कठोर अनुशासन का व्रत रहा, वहीं लोहिया स्थापित परंपराओं और वर्जनाओं पर बार-बार उंगली उठाते। स्वयं अपने जीवन को बहुत अनुशासित करने की कोशिश नहीं की। अतः समग्रता में उनका प्रभाव कुछ वैसा ही है जैसा किसी ऐसे भित्तिचित्र या तैलचित्र का, जिसकी बनावट में पारदर्शी रंगों की कई परतें एक के ऊपर एक चढ़ी होती हैं। इससे चित्र के अंतिम प्रभाव के पीछे अनेक रंगों की झांकियाँ बनी रहती हंै। एक लेखक के लिए लोहिया भी अलग-अलग ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य में अलग-अलग तरह से सामने आये और उनकी विविध छवियाँ सदा साथ-साथ बनी रहीं। डा0 लोहिया से सीधा संपर्क होने से बारह साल पहले मैं वीर-पूजा भाव से उनके प्रभाव में आ गया था। तब मैं एक स्कूली छात्र था और 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में उनके नाम से परिचित हुआ। जब सभी कांगे्रसी नेता गिरफ्तार हो गये थे तो लोहिया, अरुणा आसफअली और अच्युत पटवर्धन भूमिगत हो आंदोलन को चलाने के प्रयास में लगे रहे। बाद में जयप्रकाश नारायण हजारीबाग जेल की दीवार लाँघ बाहर आ गये और इस प्रयास में शामिल हो गये। धीरे-धीरे चारों ओर विशेषकर बिहार और महाराष्ट्र में आजादी के लिए संघर्षशील लोगों का एक व्यापक भूमिगत तानाबाना तैयार हो गया था जिसके साथ लोहिया, जयप्रकाश, अरुणा आसफअली और अच्युत पटवर्धन के नाम विशेष तौर से जुड़ गये थे और हमारे जैसे किशोर उनके प्रभामंडल में आ गये थे। लोहिया जो कुछ भी करते थे उसके पीछे तर्क गढ़ने का रुझान उस समय ही देखा जा सकता था। 1942 के आंदोलन में बड़े पैमाने पर रेल की पटरियाँ उखाड़ दी गयी थीं और कुछ रेलखण्डों पर तो हफ़्तों रेल यातायात बंद रहा। मित्र राष्ट्रों के खेमें में, जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था, इसे युद्ध प्रयासों के खिलाफ धुरी राष्ट्रों (जर्मनी, इटली, जापान) के समर्थन में ‘सैबोटाज़’ कह कर बदनाम करने की कोशिश हो रही थी। उन्हीं दिनों किसी भूमिगत प्रकाशन में डा0 लोहिया का एक आलेख ‘नाॅट सेबोटाज़ ब्ट डिसलोकेशन’ देखने को मिला। पूरा लेख क्या था, याद नहीं और सब कुछ समझने की उस समय क्षमता भी नहीं रही होगी। लेकिन यह जरूर लगता है कि इसका तर्क यह होगा कि हम हमारी जमीन पर खुद तय करेंगे कि युद्ध प्रयासों के लिए रेल व्यवस्था का आयोग हो या नहीं। इसके बाद जब, मूलतः अगस्त आंदोलन के प्रभाव में आये लोगों को लेकर आजादी के बाद, कांगे्रस के बाहर सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो इस पर सर्वाधिक प्रभाव जे0पी0 और लोहिया का था। जब 1953 में सोशलिस्ट पार्टी का विलय कृपलानी जो कि किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ हुआ और प्रसोपा बनी तो मैं इससे बाहर ही रहा। लोहिया इस पार्टी के महामंत्री बने। लेकिन 1955 में गंभीर आंतरिक विरोधों के कारण डा0 लोहिया इससे बाहर आ गये और अलग से सोशलिस्ट पार्टी बनाने के प्रयास में लग गये। बिहार के सोशलिस्टों ने सोशलिस्ट पार्टी की ‘आर्गेनाइजिंग कमेटी’ बनाकर बिहार में पार्टी का संगठन खड़ा करने का प्रयास शुरू कर दिया। इस क्रम में पटना से निकलने वाली हिन्द किसान पंचायत की पत्रिका ‘जन क्रंाति’ भी इस मुहिम में जुट गयी। इसका संपादन बी0पी0 सिन्हा (बार-एट-लाॅ) कर रहे थे। वह कभी आचार्य नरेन्द्र देव के साथ ‘संघर्ष’ के संपादन से जुड़े थे और बाद में पटना से निकलने वाली सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका ‘जनता’ के बेनीपुरी जी के साथ सह-संपादक थे। मैं भी इसके संपादन में सहयोग कर रहा था। प्रस्तावित सोशलिस्ट पार्टी के गठन के सिलसिले में ही डा0 लोहिया का बिहार दौरा आयोजित किया गया था और पटना आने पर वे बी0पी0 सिन्हा के साथ ही ठहरे थे। वहीं उनसे पहले पहल साक्षात्कार का मौका मिला। हालांकि उनसे बहुत बात करने का अवसर नहीं मिला लेकिन मुझे उनके विचारों में एक खुलेपन का एहसास हुआ और कार्यकर्ताओं से दूरी बनाये रखने का रुझान नहीं दिखा जो प्रायः अपने देश के नेताओं में होता है। 1955 के अंत में लोहिया ने हैदराबाद में अपने समर्थकों के सम्मेलन में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। वे पार्टी के अध्यक्ष बनाये गये। इसी समय उन्होंने अंग्रेजी पत्रिका ‘मैनकाइन्ड’ के प्रकाशन की योजना बनायी। मैंने इसके लिए एक लेख भेजा था। लेख देखने के बाद डा0 लोहिया ने ‘मैनकाइन्ड’ के संपादक में योगदान के लिए मुझे हैदराबाद बुला लिया। इसी के बाद मुझे उन्हें ज्यादा नजदीक से देखने का मौका मिला। संयोगवश डा0 लोहिया की जिन्दगी में यह सर्वाधिक तनाव का दौर था और इसमें उनकी छिपी हुई विलक्षण सांगठनिक ऊर्जा सामने आयी। सोशलिस्ट आंदोलन में सांगठनिक का ऐसा स्फोट भाारत में इसके पहले नहीं देखा गया था। ‘मैनकाइन्ड’ के प्रकाशन के अलावा एक साथ कई पुस्तिकाओं का प्रकाशन हुआ-जैसे बढ़ती कीमतों पर, नागा प्रश्न पर, उसी समय बिहार में आरंभ सिविल नाफरमानी पर, जिसमें लगभग छः हजार कार्यकर्ता जेल गये। पार्टी का एक साप्ताहिक ‘न्यूज फीचर’ साइक्लोस्टाइल कर निकलता था, जिसे अखबारों और विभिन्न पार्टी इकाइयों को भेजा जाता था। इन सभी कार्यों की निगरानी के अलावा देश भर में दौरोें के लिए, भ्रमण करना और फिर हर राज्य के साथ कार्यालय का जीवन संबंध कायम रखना यह सब लोहिया कर पा रहे थे। शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्रों की दादागीरी खत्म करने के पक्ष में एवं राष्ट्रों के बीच की एक तरह की जाति व्यवस्था के खिलाफ लोहिया सदा मुखर थे। इसी समय मिस्र ने नासिर के नेतृत्व में स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण किया। ब्रिटेन ने इस पर युद्ध शुरू कर दिया। हैदराबाद में लोहिया ने नासेर के समर्थन में एक बड़े प्रदर्शन का नेतृत्व कर राज्यपाल के यहाँ ज्ञापन देकर भारत सरकार से मिस्र के समर्थन की मांग की।

अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...