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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
मौलिक चिंतन के पुरोधा डा0 लोहिया
-पद्मभूषण यू0आर0 अनंतमूर्ति
(‘‘उडूपि राजगोपालाचार्य अंनतमूर्ति कन्नड़ के श्रेष्ठतम साहित्यकारों में अग्रगण्य हैं। महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तथा पद्मविभूषण तथा ज्ञानपीठ (1998) जैसे सम्मानों से विभूषित श्री अनंतमूर्ति डा0 लोहिया से प्रभावित होने वाले बुद्धिजीवियों में से एक हैं। उनका यह लेख डा0 लोहिया की व्यापक स्वीकारिता का द्योतक है।’’)
डा0 राममनोहर लोहिया मेरी दृष्टि में एक असाधारण चिंतक और साहसी समाजवादी जननेता थे, मैं उनका विद्यार्थी जीवन से ही प्रशंसक रहा हूँ और आज भी उनकी अनेक प्रेरक स्मृतियां मेरे मन में जाग्रत रहती हैं। इनमें से चार प्रसंगों को बताना चाहूंगा। मेरा ‘संस्कार’ उपन्यास उस दौरान लिखा गया था जब मैं इंग्लैण्ड में छात्र था। मैंने इस उपन्यास को कर्नाटक के किसान नेता गोपाल गौड़ा शांतिवेरी को समर्पित किया था। वह डा0 लोहिया के अनुयायी थे। वे कर्नाटक में विधायक और हमारे अच्छे मित्र थे। मैंने जब उन्हें यह उपन्यास भेजा तो उन्होंने पूरी कथा डा0 लोहिया को सुनाई। डा0 लोहिया को ‘संस्कार’ इतना पसंद आया कि उन्होंने अपने मित्र और फिल्म निर्माता श्री पट्टाभिराम रेड्डी को इस बारे में बताया और इस कथा पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। श्री रेड्डी की पत्नी स्नेहलता इस फिल्म की नायिका बनीं। वह अत्यन्त रूपवती व कुशल नृत्यांगना थीं। उनको आपातकाल में बंदी बनाया गया था और यह उनके असामयिक निधन का कारण भी बना। वस्तुतः रेड्डी दंपत्ति लोहिया के व्यापक परिवार के ही सदस्य थे। ‘संस्कार’ फि़ल्म ने कन्नड़ सिनेमा का परिदृश्य ही बदल दिया। इसे नए दौर के सिनेमा का प्रेरक माना गया और ढेरों पुरस्कार मिले। डा0 साहब से मेरी दूसरी अंतरंग मुलाकात तब हुई जब वे मेरे छोटे से घर में पधारे। मेरा हाल में ही विवाह हुआ था और हमें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। मेरे बेटे की तबीयत खराब थी क्योंकि उसे काली-खंासी की बीमारी थी। डाॅक्टरों ने बताया कि माँ के दूध पर निर्भरता की अवधि के दौरान शिशु को यह बीमारी नहीं होनी चाहिए अन्यथा जान का खतरा हो सकता है। डा0 लोहिया ने जब मेरे बीमार बच्चे को देखा तो बहुत चिंतित हुए और पूरे दिन काली-खांसी के बारे में पत्नी से और मुझसे बातें पूछते रहे और दवाइयों की जानकारी ली। उस मुलाकात में राजनीति के बारे में एक शब्द भी चर्चा में नहीं आया। डाॅक्टर साहब का ऐसा अनूठा व्यक्तित्व था। एक बार उन्होंने वृंदावन के अपने एक प्रिय विश्राम-भवन में मुझे बुलाया, सुबह के नाश्ते पर उन्होंने मुझे पपीता खाने को कहा और देर तक पपीता के गुणों के बारे में समझाते रहे। उसी भेंट में उन्होंने मुझे कहा कि तुम कन्नड़ के लेखक हो और तुम्हें कन्नड़ को सार्वजनिक जीवन में उपयोग के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। उनकी यह मान्यता थी कि शिक्षा के क्षेत्र में प्राथमिक से स्नातक स्तर तक पढ़ाई मातृभाषा में होनी चाहिए। फिर उन्होंने कहा कि स्नातकोत्तर की पढ़ाई का माध्यम हिन्दी को रखना चाहिए। इस पर मैंने असहमति जताते हुए कहा कि यदि कोई भाषा आरंभिक पढ़ाई से लेकर स्नातक स्तर के लिए उपयोगी नहीं है तो उसे स्नातकोत्तर स्तर के लिए भी माध्यम नहीं बनाना चाहिए। तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि कुछ देर की चर्चा के बाद डाक्टर साहब इस पर सहमत हो गये। वह सभी भारतीय भाषाओं के प्रबल अनुरागी थे। उनकी दृष्टि में अंगे्रजी का भी महत्व था लेकिन जनतांत्रिक भारत के सार्वजनिक जीवन में वह भारतीय भाषाओं की जगह पर अंगे्रजी का कब्जा खत्म करना चाहते थे। उन्होंने एक बार मुझे बताया कि जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने संस्कृत के आदिग्रंथ वेदों का विश्वप्रसिद्ध अनुवाद किया था लेकिन मैक्समूलर ने कभी संस्कृत को अपनी आत्मअभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। हम भी बौद्धिक जिज्ञासा और क्षमता के लिए अंगे्रजी भाषा को सीखें लेकिन यह हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं हो सकती। एक बार की मुलाकात में उन्हांेंने मुझसे बारहवीं शताब्दी की महान कन्नड़ संत-कवयित्री अक्का महादेवी के बारे में लंबी चर्चा की। मैं खुद भी अक्का की कविताओं को बहुत महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट मानता हूँ। अक्का महादेवी एक असाधारण साधिका थी, जो ईश्वर के प्रेम में मगन होकर निर्वस्त्र विचरण करती थीं। डा0 लोहिया ने बाद में अपने एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में अक्का महादेवी का विस्तार से उल्लेख किया और उनको आध्यात्मिक समता की सिद्धि में सफलता का श्रेष्ठ प्रतीक बताया। लोहिया जी ने कहा कि नर-नारी समता का सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों ही पक्ष अत्यन्त आवश्यक है। पश्चिमी महिला आन्दोलन ने सामाजिक समता का संघर्ष किया और इसमें सफल हुई हैं। मैं चाहता हूँ कि भारतीय महिलाओं को भी अविलंब सामाजिक समता मिले। वस्तुतः उनका मस्तिष्क अत्यन्त उर्वर और मौलिकता से भरपूर था। अगर हम डा0 लोहिया के योगदान के बारे में आज देखें तो मेरी दृष्टि में यह साफ है कि गांधी की मृतप्राय धारा को उन्होंने प्रवाहमान बनाने में बल और तीक्ष्णता दी। अशक्त हो रहे गांधी विचार और तरीके को उन्होंने बेहद कष्ट और जोखिम उठाकर पुनः प्रतिष्ठित किया। लोहिया ने गांधी-दृष्टि को पुनः परिभाषित किया जिसमें कई प्रासंगिक और महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की श्रृंखला बनी। यह ध्यान देना जरूरी है कि लोहिया ने अपनी दृष्टि के निर्माण में माक्र्स और गांधी देानों से कई महत्त्वपूर्ण तत्व लिये हैं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘माक्र्स, गांधी और समाजवाद’ में उनका यह गुण दिखाई पड़ता है। लेकिन उन्होंने गांधी और माक्र्स के संदर्भ में अपनी सहमति और असहमतियों दोनों को ईमानदारी से रखा है। वस्तुतः लोहिया गांधी के मानसपुत्र थे और इसीलिए वह उनसे पुत्रवत् विवाद और असहमतियों का भी साहस कर सके। आजादी के पूर्व मैं अपने पिता के साथ कर्नाटक के एक गांव में बड़ा हुआ हूं। मेरे पिता गांधी जी से प्रेरित थे। वह हरिजन पत्रिका के नियमित पाठक थे और उससे मिली जानकारी गांववालों के बीच फैलाते थे। वह भी मुझसे कहा करते थे कि देखो राममनोहर लोहिया के नाम का एक युवक ऐसा भी है जो गांधी जी की बातों पर भी सवाल उठाता है। आजादी के बाद के भारतीय समाज और राजनीति में समाजवादी आन्दोलन का प्रचार-प्रसार डा0 लोहिया का एक ऐतिहासिक योगदान है। समाजवादी आन्दोलन को मजबूत बनाने के लिए उन्होंने स्थापित दलों को तोड़कर नई पार्टियां बनाने का खतरा उठाया। हम उनको एक सर्जक और भंजक दोनों ही कह सकते हैं। वह सशक्त समाजवादी विकल्प के निर्माण के लिए जयप्रकाश और अशोक मेहता जैसे घनिष्ठ मित्रों से अलग हुए। उन्होंने कांगे्रस, प्रसोपा और समाजवादी पार्टी को बदलने और तोड़ने का काम किया। इसमें उनको अलोकप्रियता का सामना करना पड़ा लेकिन खुद की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर समाजवादी आन्दोलन और भारतीय समाज को जीवंत बनाने का निरंतर प्रयास ही तो लोहिया की विशिष्टता थी। हमारे जैसे लोग उनसे इसीलिए जुड़े क्योंकि वह सस्ती लोकप्रियता की बजाए जोखिम उठाने का साहस रखते थे। उनकी राजनीति में सत्ता की इच्छाशक्ति थी लेकिन कुर्सी के लिए लालच नहीं था। समाज में हर व्यक्ति को शक्तिमान बनाना उनका महान स्वप्न था और इसके लिए वह मंत्री की कुर्सी पाना जरूरी नहीं समझते थे। उनके एक सहयोगी अशोक मेहता ने सरकार के सहयोग से बदलाव की जरूरत का तर्क देते हुए मंत्री का पद स्वीकारने के लिए समाजवादी आन्दोलन से नाता तोड़ लिया था। लोहिया ने अशोक मेहता के इस कदम को कुर्सी की लालसा माना और कहा कि हमें सत्ता की इच्छाशक्ति (ूपसस जव चवूमत) की जरूरत है। सिर्फ एक पद हासिल करने से यह नहीं हो सकता। इसीलिए मैं यह समझता हूँ कि बदनामी का खतरा उठाकर भी लोहिया ने हमारे समाज में ‘सत्ता के लिए इच्छाशक्ति’ को मजबूत किया और यह उनका अद्वितीय योगदान है। लोहिया ने समाज के वंचित विशाल बहुमत को नवजीवन और आत्मविश्वास दिलाने के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। महिलाओं, दलितों, शूद्रों, अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों की वंचित जमातों को वह साठ प्रतिशत हिस्सेदारी एक दार्शनिक आधार पर दिलाना चाहते थे। यह सिर्फ आर्थिक और सामाजिक तर्कों पर आधारित नहीं था। उनकी यह मान्यता थी कि एक स्वस्थ समाज में संपूर्ण क्षमता की बजाए अधिकतम क्षमता का होना बेहतर है। हमारे समाज में शूद्रों, महिलाओं, दलितों समेत सभी वंचित और उपेक्षित जमातों के सशक्तीकरण से ही अधिकतम क्षमता वाला समाज बनेगा। भारतीय जनता के स्त्री प्रसंग के बारे में भी उनकी दृष्टि अनूठी थी। वह समूची स्त्री परंपरा में द्रोपदी को श्रेष्ठतम आदर्श मानते थे। लोहिया ने याद दिलाया है कि स्वयं कृष्ण भी द्रौपदी को बेहद चाहते थे। लोहिया की दृष्टि में द्रौपदी तेज़स्विता, विवेक और बहादुरी का श्रेष्ठत्तम समन्वय थी। भारतीय स्त्री को भी द्रौपदी जैसे तेज और आत्मविश्वास से लैस हुए बिना नर-नारी समता का सपना पूरा नहीं होगा। डा0 लोहिया की गैरकांगे्रसवाद की नीति को जबरदस्त सफलता मिली थी। उन्होंने अंतिम हद तक जाकर कांगे्रेस को सत्ताच्युत करने में सफलता पायी। लेकिन इसके बाद के परिणामों से मैं असहमत रहा हूँ क्योंकि समाजवादियों ने जनसंघ के साथ बार-बार समझौते किए हैं। यह समाजवाद नहीं हो सकता। यह डा0 लोहिया और बाद में जयप्रकाश जी की सोच की एक मुख्य कमी रही है। मेरी यह आलोचना है कि इस नीति से एक ऐसी पार्टी को सत्ता मिली जो बिना गैरकांगे्रसवाद के कभी भी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती थी। जार्ज फर्नाडीस और नीतीश कुमार समेत लोहिया जी के अनेक अनुयायियों ने साम्प्रदायिक दलों के साथ समझौते किये। श्री मधुलिमये जैसे कुछ लोग जरूर इस गलती के प्रति सजग थे और उन्होनंे लोहिया और जयप्रकाश के पथ पर चलने का प्रयास किया। लोहिया कहते थे कि जि़न्दा कौमें पांच साल का इंतज़ार नहीं करती। यह एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन है। हम सभी को किसी भी परिस्थिति के बारे में ‘दूरदृष्टि और तात्कालिक दृष्टि’ दोनों होनी चाहिए और हमारा आचरण इन दोनों के समन्वय से बनना चाहिए। लोहिया ने बताया था कि समाजवादी समाज के लिए हममें सौ बरस की सक्रियता का धीरज होना चाहिए लेकिन आने वाले कल में ही इसे हासिल करने की तैयारी भी रखनी है।
अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...