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स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व डॉ0 लोहिया
लोहिया की जनपक्षधरता
-मकबूल फिदा हुसैन
‘‘दुनिया के सर्वाधिक चर्चित व विवादित चित्रकारों में से एक मकबूल फिदा हुसैन की चित्रकारी अपने आप में अनन्य और अनोखी है। 17 सितंबर 1915 में महाराष्ट्र के पंढरपुर में जन्में श्री हुसैन को भारत का पिकासो कहा जाता है। वे भी डा0 लोहिया से प्रभावित रहे। उल्लेखनीय है कि डा0 लोहिया के कई पुस्तकों का रेखाचित्र व कवर-चित्र फिदा साहब ने बनाया है। पद्मश्री, पद्मभूषण तथा पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नवाजे़ गए मकबूल साहब का यह लेख लोहिया के उदात्त किरदार को चित्रित करता है।’’
डा0 राममनोहर लोहिया देश के एक बड़े राजनेता थे। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनके साथ काफी वक्त बिताने का मौका मिला। जब वे हैदराबाद में थे तो सात साल तक मैं उनके सान्निध्य में रहा था। वह 1960 का दौर था। उन्होंने मुझसे एक बड़ी अच्छी बात कही थी। उन्होंने कहा था कि आप पेंटिंग तो टाटा-बिरला के लिए करते हैं, मगर कभी गांववालों के लिए कुछ पेंटिग कर लिया करें। पेंटिंग सिर्फ़ अमीरों के लिए नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आम आदमी भी आपको काफ़ी सम्मान देंगे। उन्होंने कहा, हमारे देश में रामायण है, महाभारत है आप इसके चित्र क्यों नहीं बनाते हैं। उन्होंने कहा कि इतने पौराणिक चरित्र हैं देश में, इनके चित्र बनाने पर लोगों को कुछ फ़ायदा भी होगा। लोग सिर्फ सपाट पत्थर की इतनी पूजा करते हैं, अगर उन्हें उस पर भगवान की चित्रकारी मिलेगी तो वे कितने खुश होंगे। उन्होंने कहा था कि आपकी कला को लोग शहरों से ज़्यादा गाँव में समझेंगे। उनकी यह बात तब सच साबित हुई जब मैंने साठ के दशक में अपनी कार पर कृष्ण की कुछ पेंटिंग की। शहरों में मैं जहाँ भी इस गाड़ी से जाता था, लोग गाड़ी पर पेंटिंग देखकर मुँह बिचकाते थे। लेकिन जब मैं इस गाड़ी को लेकर गाँव में गया तो लोग बड़े खुश हुए, तो मुझे लगा कि हमारे देश से अंग्रेज तो चले गए पर उनकी औलादें यहीं छूट गई हैं। उन्हें अपनी संस्कृति से कोई लगाव नहीं है। डा0 लोहिया के कहने पर मैंने हैदराबाद में रामायण पर आठ साल काम किया। रामायण पर मैंने यूँ ही नहीं पेंटिंग बनाई, बल्कि रामायण को समझने के लिए मैंने बनारस के बड़े-बड़े विद्वानों को बुलाया। वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास रचित रामायण दोनों पर मैंने गहरा रिसर्च किया, फिर जाकर काम शुरू किया। इससे पहले राजा रवि वर्मा ने हिन्दू पौराणिक चरित्रों पर कुछ काम किया था। डा0 लोहिया भारतीय परंपरा और संस्कृति का काफी सम्मान करते थे। वह हर धर्म को इज़्जत देते थे। जितनी इज़्जत वह हिन्दू धर्म की करते थे, उतनी वह इस्लाम की भी करते थे। आज वे नहीं रहे, लेकिन उनकी कई सारी यादें मेरे मन में अभी भी ताज़ी हंै। डा0 लोहिया को खाने का बहुत शौक था, हम साथ ढ़ाबांे पर जाते थे। इतने बड़े नेता होकर भी वो बड़े होटल की बजाय ढाबों पर खाना खाते थे। वहाँ वे सबसे बहुत घुलमिल कर बात करते थे। वे एक शब्द भी अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं करते थे और दूसरों को अपनी मातृभाषा का प्रयोग करने पर जोर देते थे हालाँकि बाद में उन्होंने भाषा को लेकर आन्दोलन भी चलाया। डा0 लोहिया की डायनेमिक पर्सनैलिटी थी। आज देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है। आजकल के नेता तो नाम के नेता हैं, जो देश को जोड़ने पर कम और तोड़ने पर ज्यादा काम करते हैं। आज के नेता उलजुलूल मुद्दों को लेकर देशवासियों को भड़काने का काम करते हैं। डा0 लोहिया देश की महिलाओं को सशक्त बनाना चाहते थे। उन्होंने एक बार मुझसे चर्चा की थी कि सीता का जितना शक्तिशाली चरित्र वाल्मीकि रामायण में है, उतना तुलसीदासरचित रामायण में नहीं है। उन्होंने भारत की महिलाओं को आदर्श सीता के बजाय द्रोपदी को चुनने की सलाह दी थी। क्योंकि द्रोपदी एक सशक्त चरित्र थी। डा0 लोहिया इस देश के महान देशभक्त थे। बड़े अफसोस की बात है कि ऐसा राजनेता बहुत जल्दी हमारे बीच से चला गया। अगर वे कुछ दिन और रहते तो देश का काफ़ी भला होता। आज हम कहाँ से चलकर कहाँ पहुँच गये हैं। चाहे गाँव हो या शहर, लोग अपनी संस्कृति, अपने मूल्य भूलते जा रहे हैं। ऐसे में मुझे डा0 लोहिया की कमी काफ़ी खलती है।
अनुक्रमण
डॉ0 लोहिया की कलम से
‘‘भारत की आजादी के लिए डा0 लोहिया ने कई बार कारावास की कठोर व क्रूर यातनायें झेली लेकिन स्वतंत्रता का कंटकाकीर्ण पथ नहीं छोड़ा। 1944-45 में उन्हें आगरा सेण्ट्रल जेल में बंदी बनाकर भयंकर पीड़ा दी गई जिसका वर्णन उन्होंने अपने वकील श्री मदन पित्ती को दिए गए वक्तव्य में किया है। 27 अक्टूबर 1945 को आगरा की जेल में दिए गए इस ऐतिहासिक बयान से स्पष्ट होता है कि ब्रिटानिय...